शनिवार, अगस्त 07, 2010

सरकार के वीरुध एकजुट हुए उर्दू समाचार पत्र

हिन्दी और अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों की तरह उर्दू के समाचार पत्रों में भी आपस में काफी मुकाबला देखने को मिलता है। अंतर सिर्फ इतना है की एक ओर जहां हिन्दी और अंग्रेज़ी के समाचारपत्र खबरों के लिए मुकाबला करते हैं वहीं उर्दू के अखबार सिर्फ इस बात के लिए एक दूसरे से मुकाबला करते हैं की अधिक से अधिक मंत्रियों से कैसे जान पहचान बनाई जाए और कैसे ड़ी ए वी पी में बड़े अधिकारियों से मिलकर अधिक से अधिक विज्ञापन हासिल किया जाए। उर्दू अखबारों में यह भी एक चलन है की यहाँ हर अखबार बड़े बड़े मुस्लिम विद्दुयानों को अपने करीब रखने की कोशिश करता है। मगर इस बार उर्दू अखबार वालों को एक ऐसी परीशनी का सामना है की सब के सब सरकार के वीरुध एकजुट नज़र आ रहें हैं। हुआ यह है की पिछले कुछ महीनों से उर्दू अखबार को ड़ी ए वी पी के विज्ञापन बहुत कम मिल रहें हैं। और जहां तक उर्दू अखबारों का सवाल है तो उर्दू अखबार की आम्दनी का जरिया बहुत हद तक ड़ी ए वी पी के विज्ञापन ही होते हैं। मगर ऐसा देखा जा रहा है की यू पी ए सरकार पता नहीं क्यूँ उर्दू वालों को विज्ञापन नहीं के बराबर दे है। हद तो यह है की जो विज्ञापन सिर्फ उर्दू वालों के लिए होते हैं वो भी इंग्लिश अखबारों में छपते हैं। अब चूंकि इंग्लिश या हिन्दी अखबारों की तरह उर्दू मैं न तो ब्लाक मेल करने का चलन है और न ही इन में प्राइवेट विज्ञापन ज्यादाह होते हैं इस लिए उर्दू अखबार के बचे रहने के लिए ड़ी ए वी पी विज्ञापन ज़रूरी है। मगर यू पी ए सरकार उर्दू अखबार के साथ सौतेला रवैया अपना रही है। सरकार की इसी बेरुखी से नाराज़ होकर उर्दू अखबार के संपादकों और मालिकों ने प्रधान मंत्री और दूसरे मंत्रियों से मिलने का सिलसिला शुरू कर दिया है। गत दिनों इसी सिलसिले में हिंदुस्तान एक्सप्रेस के परवेज़ सुहाइब अहमद, हमारा समाज के खालिद अनवर, सहाफ़त के हसन शुजा और अखबार मशरिक़ के वसीमूल हक़ ने मौलाना अर्शद मद्नी और सांसद बदरुद्दीन अजमल के साथ प्रधान मंत्री से मुलाकात की। प्रधान मंत्री हालांकि इस टीम को आश्वासन दिया की वो उर्दू अखबारों की समस्याओं पर ग़ौर करेंगे। उनहों ने अपने प्रैस सलाहकार से भी कहा की इन अखबारों के समस्याओं को हल करने की कोशिश करें। इस पर अमल कब होता है यह तो बाद में पता चलेगा।
चूंकि सरकारी विज्ञापन नहीं मिलना एक बड़ी समस्या है इस लिए इस सिलसिले में उर्दू अखबार के संपादकों ने मंत्रियों और ऐसे लोगों से मिलना शुरू कर दीया है जिनसे कोई लाभ हो सकता है। वैसे तो उर्दू अखबार की मदद के लिए मौलना लोग और कई सांसद भी सामने आ गए हैं मगर कई लोग ऐसे भी हैं जिंका कहना है की अखबार वाले क्या अपनी समस्या खुद हल नहीं कर सकते जो उन्हें मौलाना लोगों की मदद लेनी पड रही है। इस सिलसिले में जिन लोगों ने खुलकर उर्दू वालों की मदद करने का वादा किया है और कर भी रहें हैं उनमें सांसद मोहम्मद अदीब, मौलाना अहमद बुखारी, मौलाना अर्शद मदनी और मौलाना वाली रहमनी का नाम उललेखनिए है। इन सभी का यही कहना है और यह सही भी कह रहें हैं की सरकार उर्दू अखबार के साथ नाइंसाफी कर रही है। गत दिनों दिल्ली में एक प्रोग्राम के दौरान सांसद मोहम्मद अदीब ने कहा की उर्दू वालों के साथ सब से बड़ा मसला यह है की उनका कोई संगठन नहीं है जो उनके लिए आवाज़ बुलंद कर सके। इसी प्रोग्राम में कोलकाता के मशहूर अखबार आज़ाद हिन्द के संपादक और सांसद सईद मलीहाबादि ने कहा की हर अखबार अकेले अपनी समस्या हल नहीं कर सकता। इस के लिए ज़रूरी है की संगठन बनाया जाए और फिर किसी समस्या के हल के लिए मिलकर कोशिश की जाये. कुल मिला कर पहली बार ऐसा देखने में आ रहा है की उर्दू के सभी अखबार वाले एक प्लातेफ़ोर्म पर आ गए हैं और सब मिलकर इस समस्या का हल निकालने की कोशिश में लगे हैं। मगर बड़े अफसोस की बात यह है की राजनीती यहाँ भी हो रही है। एक ओर जहां हर कोई इस अवसर का लाभ उठा कर अपनी अधिक से अधिक पहुँच नेताओं तक बनाने की कोशिश में लगा है वहीं उर्दू के एक बड़े अखबार राष्ट्रीय सहारा के संपादक अज़ीज़ बर्नी ने खुद को इस पूरे मामले से अलग रखा हुआ है। जिस पार्कर चुनाओ के समय मुसलमानों का वोट बाँट जाता है ठीक उसी तरह यहाँ भी थोड़ी बहुत राजनीती हो रही है और उर्दू वाले एक दूसरे को काटने में लगे हुये हैं। इस अवसर पर यदि सबने मिल कर काम नहीं किया तो इसका एक बड़ा नुकसान आने वाले दिनों में सब को होगा। पता नहीं यह बात उर्दू अखबारों के संपादकों या मालिकों को क्यूँ समझ में नहीं आ रही है। सुनने में यह भी आ रहा है की सरकार को कुछ उर्दू के संपादकों ने चार पाँच नाम दे कर यह कहा है की यही चार पाँच अखबार उर्दू के दिल्ली से निकलते हैं बाक़ी नहीं। इस के बाद से उन अखबारों में नाराज़गी पायी जा रही है जिसका नाम इस लिस्ट में नहीं है।