सोमवार, जनवरी 31, 2011

मोदी तो एक बहाना है असली मक़सद देवबंद पर कब्जा जमाना है


नए कुलपति को हटाने के लिए पर्दे के पीछे से खेल जारी
वसतानवी के खिलाफ खबर नहीं छापने के लिए उर्दू के अखबार ने लाख रुपए मांगे
देवबंद में उर्दू अखबार सहाफ़त की कापियाँ जलाईं गईं
भारत की सब से बड़ी और विश्व की कुछ बड़ी इस्लामी शिक्षण संस्थाओं में शामिल दारुल उलूम देवबंद की खबरें हिन्दी और अंग्रेज़ी मीडिया में आम तौर पर नहीं के बराबर छपती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है की इस संस्था में हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबार जाते ही नहीं । यहाँ की खबरें तभी प्रकाशित होती हैं जब चुनाव के समय मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए कोई नेता इस संस्था का दौरा करता है या फिर जब यहाँ से कोई फतवा जारी होता है। इन दिनों दारूल उलूम एक बार फिर फिर सुर्खियों में है। यह सही है की उर्दू के अखबारों की तरह दारुल उलूम की खबरें अंग्रेज़ी या हिन्दी के अखबारों में ज्यादा नहीं छप रहीं हैं मगर इस बार छप ज़रूर रहीं हैं। इसकी एक बड़ी वजह है इस संस्था के नए वी सी मौलाना ग़ुलाम वसतानवी के मुंह से गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ। मगर हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबारों में एक जैसी ही खबर आ रही है की चूंकि नए वी सी ने गुजरात के मुख्य मंत्री मोदी की तारीफ की इस लिए उनको हटाने की मांग हो रही है। मगर सही खबर कुछ और ही है। दारुल उलूम में इन दिनों बवाल मचा हुआ है, पढ़ाई लिखाई ठप्प है और वहाँ का माहौल तो गरम है ही हर वो वायक्ति चिंता में है जिसे मुसलमानों के इस सबसे बड़े मदरसे में दिलचस्पी है। मौलाना वसतनवी के पीछे आखिर लोग कियून पड़े हुये हैं, आखिर वो कौन लोग हैं जो उनके पीछे लगे हैं, वास्तवि ने पहले परेशान हो कर इस्तीफा दे दिया अब वो कियूं कह रहें है मेरा निर्णय अंतिम नहीं है और मुझे रखने या नहीं रखने का फैसला गोवार्निंग काउंसिल को करना है। यह सब आखिर हो कियूं हो रहा हैं और वो कौन कौन से मौलाना हैं जो इस गंदे खेल में शामिल हैं आइये आपको बताते हैं।
पिछले दिनों जनाब मर्गूबुर्रहमान रहमान की मौत के बाद गुजरात के मौलाना ग़ुलाम मोहम्मद वसतानवी को यहाँ का मोहतमीम यानि कुलपति बनाया गया। उनके कुलपति बनते ही देवबंद में जो बवाल शुरू हुआ है वो धीरे धीरे उग्र रूप लेता जा रहा है और वासतानवी के इस्तीफे की पेशकश के बाद भी कम नहीं हुआ है। वसतानवी का विरोध कई कारणों से हो रहा है। पहला उन पर यह इल्ज़ाम है की वो चूंकि बड़े अमीर मौलाना हैं इस लिए उनहों ने अपने पक्ष में वोट खरीद लिया और इस बड़े ओहदे पर क़ाबिज़ हो गए। उनके विरोध की दूसरी बड़ी वजह है उनका अखबारों में प्रकाशित वो बयान जिसमें उनहों ने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की। उनके विरोध की तीसरी और सबसे बड़ी वजह यह है की उनकी एक ऐसी तस्वीर सामने आई है जिसमें गुजरात में एक प्रोग्राम के दौरान वो किसी को एक मूर्ति भेंट कर रहें हैं। सामान्य तौर पर आम मुसलमानों को मौलाना वसतनवी के विरोध की यही तीन कारण समझ में आ रहे हें।
अब बात करते हैं पहले कारण की। वसतानवी पर आरोप है की उनहों ने पैसे के बल पर यह पद हासिल किया है। जो लोग ऐसा आरोप लगा रहें हैं उन्हें यह समझना चाहिए की यह संभव नहीं है। मजलिसे शुरा यानि गवार्निंग काउंसिल में देश के बड़े बड़े मौलाना शामिल हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती की वो पैसा लेकर वोट करेंगे। और अगर ऐसा है भी तो फिर ऐसे लोगों को गवार्निंग काउंसिल में कियूं रखा गया है। विरोध की दूसरी वजह हजारों मुसलमानों के हत्यारे नरेनरा मोदी की तारीफ है। जहां तक नरेंद्र मोदी का सवाल है सिर्फ मुसलमान ही नहीं दूसरे धर्म के लोग भी यह समझते हैं की गुजरात दंगे में मोदी का भी रोल रहा है। कोई भी सच्चा मुसलमान जिसे अपनी क़ौम से और मानवता से मोहब्बत होगी वो मोदी भला कैसे माफ कर देगा। हर किसी को पता है की गुजरात दंगे में पूरी कमान मोदी के हाथ में थी यह सब उन्हें पता था की राज्य में मुसलमानों को कत्ल किया जा रहा है। महिलाओं की इज्ज़त लूटी जा रही है और बच्चों को अनाथ किया जा रहा है। इस लिए यह सब जानते हुये कोई भी अच्छा आदमी मोदी की तारीफ नहीं कर सकता। जहां तक राज्य में मोदी के कामों का सवाल है तो इस से किसी को इंकार नहीं हो सकता की विकास के जो काम मोदी ने किए हैं वो कोई दूसरा मुख्यमंत्री नहीं कर सका।
रहा सवाल किसी को मूर्ति भेंट करने का तो चूंकि मौलाना वसतानवी गुजरात के हैं और वहाँ वो कई प्रकार के बीजनेस्स में शामिल हैं इसलिए किसी प्रोग्राम में उनहों ने किसी को मूर्ति भेंट की होगी। यह इस्लाम के हिसाब से गलत है इस लिए उन्हें इस सिलसिले में माफी मांग लेनी चाहिए। देवबंद के पूराने छात्र और देवबंद को अच्छी तरह से समझने वाले बताते हैं की वसतानवी के विरोध की असली वजह यह तीन बिन्दु नहीं हैं। सच्चाई यह है की चूंकि दारुल उलूम भारत का सब से बड़ा इस्लामी इदारा है। यहाँ से जारी बयान का असर न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुसलमानों पर भी होता है इस लिए कुछ खास लोग ऐसे हैं जो हमेशा इस बड़ी संस्था पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहते हैं। अब चूंकि वसतानवी का इस पर कब्जा हो गया है इस लिए उन के खिलाफ तरह तरह के बयान जारी किए जा रहें। संस्था में पढ़ाई लिखाई के माहौल को ठप्प अकर्के वसतानवी को देवबंद से भागने के लिए मजबूर किया गया। फिलहाल वसतनवी ने इस्तीफे की पेशकश तो कर दी है मगर उन्हें पूरे भारत से और खास तौर पर गुजरात से जो समर्थन मिल रहा है उसके बाद उनहों ने अपना फैसला बदल लिया है। देवबंद के साथ साथ पूरे देश के मुसलमान जिन्हें इस संथा से लगाव है आज दो गरोहों में बाँट गए हैं। एक वो हैं जो वसतानवी के साथ है और एक वो हैं जो उनका विरोध कर रहें हैं। अलबत्ता कुछ विरोध करने वाले ऐसे हैं जो यह नहीं कह रहे की उनको पद छोड़ देना चाहिए मगर उनका यह कहना सही है की मोदी की तारीफ और मूर्ति भेंट करने वाली बात उचित नहीं है इस के लिए उन्हें मुसलमानों से माफी मांगनी चाहिए। बाक़ी जो दूसरे विरोध करने वाले हैं उनके साथ एक बड़ी समस्या यह है की वो वसतानवी का विरोध तो कर रहें हैं मगर खुल कर सामने नहीं आ रहें हैं। विरोध करने वाले तो इस हद तक गिर गए हैं की उनहों ने उर्दू के एक अखबार को वसतनवी का विरोध करने के लिए पूरा ठेका ही दे दिया है। पिछले कई दिनों से इस अखबार में पहले पृष्ठ पर सिर्फ वसतनवी के खिलाफ ही खबरें प्रकाशित हो रही हैं। इस अखबार में देश की दूसरी सभी बड़ी खबरें इन दिनों गायब रहती हैं इसमें सिर्फ यही छप रहा है की वसतनवी ने यह गलत किया और वो गलत किया। कभी उन्हें आर एस एस का एजेंट कहा जा रहा है तो कभी उनके खिलाफ फतवा जारी करके यह कहा जा रहा है की मूर्ति भेंट करने के बाद अब वो मुसलमान ही नहीं रहे। खबर यह है की उर्दू के दो अखबारों ने एक बड़े मौलाना के दफ्तर में एक सौदेबाज़ी की की अगर वसतानवी इस दोनों अखबार को एक एक लाख रूप्य दे दें तो हम उन के खिलाफ खबर नहीं छपेंगे। मगर वसतानवी ने ऐसा नहीं किया और यही वजह है की उनके वीरोध में खबर और लेख के छपने का सिलसिला जारी है। यानि अगर इन दो अखबारों को लाख लाख रूपये मिल जाते तो मोदी की तारीफ भी गलत नहीं होती और एक मौलाना के जरिया किसी को मूर्ति भेंट करना भी इस्लाम के वीरुध नहीं होता। ज़रा ग़ौर कीजिये इस बात पर। कितना घिनौना खेल खेला जा रहा है इस संस्था के नाम पर । कमाल की बात तो यह है की वासतानवी के फिलहाल गुजरात चले जाने के बाद भी घिनौना खेल जारी है। उर्दू अखबार सहाफ़त ने वसतनवी के खिलाफ लिखने में सारी हदें पार कर दी हैं। यही कारण है की देवबंद में इस अखबार की कापियाँ भी जलायी गईं। मुसलमानों से अपील भी की जा रही है की इस अखबार को पढ्न बंद करें कियुंकी यह मूसलामों की एक बड़ी संस्था को बर्बाद करने पर तुला हुआ है।
इस सारे मामले में सबसे बड़े अफसोस की बात तो यह है की वासतानवी के खिलाफ यह सारा खेल पर्दे के पीछे से एक ऐसे मौलाना खेल रहे हैं जिन्हें भारतिए मुसलमान बड़ी इज्ज़त की निगाह से देखता है। सच्चाई यह है की दुनिया के दूसरे धर्मों के मानने वालों की तरह मुसलमानों में भी कुर्सी की लड़ाई है। एक ओर जहां राजनेता मुसलमानो को मात्र एक वोट बैंक समझते हैं वहीं मौलाना हाजरात भी मुसलमानों के जज़्बात से खेलते हैं। जिस तरह बाल ठाकरे , नरेंद्र मोदी, विनय कठियार जैसे लोग अपने लाभ के लिए किसी बी हद तक जा सकते हैं उसी तरह मुसलमानों में भी ऐसे बहुत से लोग है जो बड़ी गंदी सियासत में लिप्त है। अफसोस की बात तो यह है की ऐसी हरकत वो लोग कर रहे हैं जो बड़े बड़े मौलाना कहलाते है। हजारों मुसलमान ऐसे हैं जो इन्हें इज्ज़त की नज़र से देखते हैं और आँख बंद करके इन पर भरोसा करते हैं। इन मौलाना लोगों में से सब ने गैरसरकारी संगठनों के नाम पर कई कई संस्था बनाकर अपनी अपनी दूकानें खोल ली है और आम मुसलमानों को उल्लू बनाकर अपनी अपनी दुकान चला रहें है। इन दिनों दारुल उलूम देवबंद में जो खेल जारी है उसकी असलियत का पता हर बड़े मौलाना को है। सबको पता है की वसतनवी का सही मायेने में विरोध कौन लोग कर रहे हैं और उनके विरोध की वजह किया है। सब को यह भी पता है की वसतनवी के खिलाफ मोर्चा किसने और किस मक़सद से खोला हुआ है। मगर कोई कुछ नहीं बोल रहा हैं। कारण यह है की हर किसी को अपनी अपनी दुकान चालानी है। संस्था में हँगामा हुआ, विद्यार्थी ज़ख्मी हुये, पढ़ाई डिस्टर्ब हो रही है मगर इसकी चिंता किसी को नहीं हैं।
दारुल उलूम में ठीक ऐसी ही स्थिति 30-32 साल पहले भी पैदा हुई हुई थी। तब मौलाना कारी तैयब साहब दारुल उलूम के मोहतमीम थे। इन्हीं लोगों ने जो आज पर्दे के पीछे से वसतनवी के खिलाफ मोर्चा खोले हुये हैं ने उस समय भी खूब हंगाम किया था। तैयब साहब ने तब हार मान कर सब कुछ उन लोगों के हवाले कर दिया था जो इसे अपनाना चाहते थे। उस समय भी हंगामे में कई विद्यार्थी ज़ख्मी भी हुये थे और एक मौलाना साहब जो आज भी बड़े मौलाना हैं ने उस समय दोनों हाथों से विद्यार्थियों पर गोली चलाई थी। हद तो तब हो गयी जब इसी मौलाना ने एक विद्यार्थी के मुंह में उस समय पेशाब करवा दिया जब उसने प्यास से पानी की मांग की । कुल मिलाकर विद्यार्थियों का इस्तेमाल कर के आज एक बार फिर दारुल उलूम पर क़ब्ज़े की तैयारी हो रही है । इस संस्था पर हमेशा एक खास ग्रूप का कब्जा रहा है और अब जबकि गुजरात का एक मौलाना इस संस्था पर क़ाबिज़ हो गया है तो यह बात इस ग्रूप को पच नहीं रही है और इस मौलाना यानि वसतनवी को हटाने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। एक सीधी सी बात यह है की यदि गवार्निंग काउंसिल को लगता है की मौलाना वासतानवी इस ओहदे के लायक नहीं हैं तो हंगामा करने के बजाए उन्हें सीधे से हटा दिया जाये। सब से खास प्रश्न तो यह है की दारुल उलूम देवबंद किसका है? अगर यह किसी एक खानदान का है तो यह पूरी तरह से उसी को सौंप दिया जाये और अगर यह संथा पूरे मुसलमानों की है और यहाँ कोई समस्या पैदा हुई है तो इसके लिए हर बड़े मौलाना को सामने आना चाहिए। अगर सब लोगों को यह लगता है की वसतानवी जैसी सोच का आदमी इस संस्था के लिए उचित नहीं होगा तो उसे हटा दिया जाये मगर यह फैसला तो गवार्निंग काउंसिल को करना है मगर बड़े बड़े मौलाना पर्दे के पीछे से जो खेल खेल रहें है किया वो शर्मनाक नहीं है। वैसे तो वासतानवी की किस्मत का फैसला 23 फरवरी को गवार्निंग काउंसिल की मीटिंग के बाद होगा इस दौरान देवबंद पर क़ब्ज़े की इस राजनीति में कौन कौन से गेम होते हैं देखते रहिए।

सोमवार, जनवरी 10, 2011

दिल्ली से एक और उर्दू अखबार


भारत में उर्दू के समाचारपत्रों की हालत कभी भी अच्छी नहीं रही। इस के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों खास तौर पर दिल्ली से उर्दू अखबारों के निकलने का सिलसिला हर दौर में जारी रहा। अखबार निकलते रहे और साल दो साल या फिर चार साल के बाद बंद होते रहे। हाल ही में दिल्ली से उर्दू का एक और अखबार जदीद मेल के नाम से निकला है। वैसे तो शुक्रवार को यह अखबार पहली बार मार्केट में आया मगर उस पर अंक नंबर 61 लिखा हुआ है। इसके चीफ एडिटर जाने माने पत्रकार जफर आग़ा हैं जबकि एडिटर हाजी अब्दुल मालिक है जो इस अखबार के मालिक भी हैं। अखबार के प्रिंटर और पब्लिशर आली हैदर रिजवी हैं। रिजवी पहले सहाफ़त अखबार में थे। किसी विवाद के बाद रिजवी सहाफ़त से अलग हो गए और उनहों ने एक दूसरा अखबार उर्दू नेट निकाला। बाद में कुछ ही दिनों चलने के बाद उर्दू नेट भी बंद हो गया। उर्दू का यह नया अखबार कितने दिन चलेगा यह तो एक अलग सवाल है मगर एक मुख्य प्रश्न यह है की जब राष्ट्रीय सहारा के अलावा दिल्ली से निकालने वाले उर्दू के सभी अखबार आर्थिक तंगी की वजह से रोते रहते हैं, किसी ने खर्च में कमी लाने की नियत से दिल्ली से बाहर अखबार भेजना बंद कर दिया है तो कोई अखबार बेचने के लिए खरीदार तलाश रहा है। ऐसे में एक नए उर्दू अखबार की शुरूआत बड़े आश्चर्य की बात है।
उर्दू अखबार के साथ एक बड़ा मसला यह है की उन्हें विज्ञापन बहुत कम मिलते हैं। कम सर्कुलेशन की वजह से प्राइवेट विज्ञापन तो मुश्किल से मिलता ही है अब डी ए वी पी के विज्ञापन में कमी के कारण भी उर्दू अखबार की हालत खराब हो गयी है। पिछले दिनों जब उर्दू वालों को डी ए वी पी के विज्ञापन बहुत कम मिलने लगे तो उर्दू अखबार के मालिक और संपादकों ने इस समस्या को लेकर कई नेताओं समेत प्रधान मंत्री से भी मुलाकात की। उन्हें उनकी समस्याओं के हल का आश्वासन भी दिया गया मगर अब तक यह समस्या हल नहीं हुई है। लगभग एक साल बीत चुके है तब से लेकर अब तक उर्दू वालों का नेताओं और अफसरों से मिलने का सिलसिला जारी है। इस सिलसिले में एक बात यह देखने में आ रही है की अपनी आदत के अनुसार उर्दू का हर अखबार एक दूसरे की काट करने में लगा है। हर संपादक या मालिक की यही कोशिश है की नेता से उसकी पहचान ज़्यादा बने और अगर सरकार उर्दू अखबार के लिए कुछ खास ऐलान करे तो उसका लाभ उसे हो। फिलहाल दिल्ली से 47 उर्दू के ऐसे अखबार प्रकाशित हो रहें हैं जिनको डी ए वी पी से विज्ञापन मिलता है। इन 47 में से अधिकतर ऐसे है जो सिर्फ उसी दिन प्रक्षित होते हैं जिस दिन उनको विज्ञापन मिलता है उसके अलावा यह अखबार कहाँ से प्रकाशित होते हैं और कहाँ जाते है यह किसी को पता नहीं है। दिल्ली में फिलहाल मार्केट में उर्दू के जो अखबार नज़र आते है वो हैं राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान एक्सप्रेस, सहाफ़त और हमारा समाज। इन के अलावा जो अखबार निकलते वो सिर्फ सरकारी दफ्तरों में जाते हैं। इनमें कॉर्पोरेट का अखबार होने की वजह से सिर्फ सहारा ही ऐसा है जिसकी आर्थिक हालत अच्छी है बाक़ी के अखबार जैसे तैसे कर के चल रहें हैं। जिस अखबार के मालिक तेज़ और चालाक हैं वो तो कहीं न कहीं से अखबार चलाने के लिए पैसा निकाल ही लेते हैं जिनको यह फन नहीं आता वो अपनी हिम्मत से अखबार निकाल तो रहें है मगर कब तक निकलते रहेंगे यह कहना मुश्किल है। उर्दू अखबारों की आर्थिक तंगी के बावजूद एक नए अखबार ने दिल्ली में दस्तक दी ह। अखबार के मालिक ने ऐसी हिम्मत कैसे कर ली और यह अखबार कितने दिनों तक चलेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।