सोमवार, नवंबर 29, 2010

नितीश की आँधी में बुझ गई लालटेन, उजड़ गई झोपड़ी


यह तो पहले ही तय हो गया था की बिहार के इलेक्शन में नितीश कुमार और उनकी टीम को सफलता मिलेगी मगर सफलता इतनी बड़ी होगी की लालू की लालटेन का तेल खत्म हो जाएगा और पासवान की झोपड़ी उड़ जाएगी इसका अंदाज़ा किसी को नहीं था। पासवान की झोपड़ी तो उडी ही लालू की पार्टी का भी यह हाल हुआ की अब बिहार में विपक्ष नाम की कोई चीज़ ही नहीं बची। फ़ेसबुक पर मेरे एक मित्र परवेज़ अहमद ने सही लिखा है कि बिहार की जनता को अब लालटेन नहीं बल्कि हैलोजन लैम्प चाहिए। यह सही भी है। जब हमेशा बिजली मिलने लगेगी तो फिर लालटेन का क्‍या काम। लालटेन तो पुरानी चीज़ हो गयी, उसमें बार बार किरासन तेल डालने का झंझट भी है। यही मामला झोपड़ी के साथ भी है। हर कोई चाहता है की उसका विकास हो, उसे भी अच्छे दिन देखने को मिलें और उसका घर भी पक्का का हो जाए। यही सही भी है झोपड़ी में रहने की तमन्ना क्‍यों की जाये पक्के मकान का ख्‍वाब क्‍यों न देखा जाये। हालांकि लोकतंत्र में विपक्ष का नहीं होना अच्छी बात नहीं है, मगर जब कोई इस लायक हो जाये की उसे वोट ही न मिले तो कोई दूसरा क्या करे। नितीश एंड कंपनी को जो शानदार सफलता मिली है, उस से यह साबित हो गया है कि फिलहाल बिहार में वही जनता की सब से पहली पसंद हैं और उनके मुकाबले में जनता ने लालू और पासवान को घास नहीं डाली।
लालू और पासवान को भी अब इस बात का अंदाज़ा अच्छी तरह से हो गया होगा कि बिहार के लोग बिहारी तो हैं, मगर दिल्ली वाले 'बिहारी' नहीं हैं। इस बार जनता ने इन दो नेताओं का जो हाल किया है उसे वो काफी दिनों तक भूल नहीं पाएंगे। आखिर इन दोनों को यह बात समझ में क्‍यों नहीं आती की जनता को विकास चाहिए, उसे किसी के बेटे या बीवी से क्या मतलब? लालू और पासवान दोनों ने अपने अपने बेटे को इलेक्शन में घुमाया। मगर जनता ने उन्हें उनकी औकात बता दी और बता दिया कि न तो लालू का बेटा अजहरुद्दीन है और न ही पासवान का बेटा संजय दत्त। एक ने कोई ऐसा मैच ही नहीं खेला कि उसे याद रखा जाये, दूसरे ने कभी कोई फिल्म भी बनाई है इसका किसी पता ही नहीं। रहा सवाल पत्नी का तो राबड़ी देवी में ऐसी कौन सी खूबी है कि जनता उसे वोट दे। जनता को तो यह पता था कि पति ने तो हमें लूटा ही इस महिला ने भी खूब लूटा तो फिर दोबारा अवसर क्‍यों दिया जाये। यही कारण है की राबड़ी दो स्थानों से इलेक्शन लड़ी और दोनों जगह से हार गयीं। पासवान के भाई का भी बुरा हाल हुआ।
लालू और पासवान जी को जनता ने अपना जनादेश सुना कर यह बताने की कोशिश की है कि अब बिहार के लोगों में भी समझ आ गयी है। उन्हें भी लगने लगा है कि जात-पात और धर्म की राजनीति बकवास की चीज़ है। सब से ज़रूरी चीज़ है विकास। विकास के बिना सब कुछ बेकार है। क्या बिहारी नहीं चाहते की उनके घर में भी बिजली आए, क्या बिहारी नहीं चाहते की बिहार की सड़कें भी देश के दूसरे राज्यों की सड़कों जैसी हों, क्या बिहारी यह नहीं चाहते की जब वो शाम को दिन भर काम करके अपने घर लौटें तो उन्हें कोई लूटे नहीं, क्या बिहार के ठेकेदार यह नहीं चाहते उनसे कोई रंगदारी टैक्स नहीं ले, क्या स्कूल के विद्यार्थी यह नहीं चाहते कि उनका टीचर पाबंदी से स्कूल आए, क्या कॉलेज के विद्यार्थी यह नहीं चाहते की देश के दूसरे कॉलेज और यूनिवर्सिटी की भांति उनका सेशन लेट न हो। बिहार में भी ऐसा ही चाहने वाले लोग हैं और उन्हें ऐसा माहौल दिया जा रहा है या फिर ऐसा माहौल देने की हर संभव कोशिश की जा रही है, तो फिर नितीश एंड कंपनी की मदद क्‍यों नहीं की जाये। उन्हें वोट क्‍यों नहीं दिया जाये। इलेक्शन से पहले ऐसा कहने वालों की कमी नहीं थी कि बिहार में जात-पात के आधार पर इलेक्शन होता है, इसलिए नितीश ने लाख काम किए हों मगर लालू और पासवान को भी बहुत सीटें मिलेंगी। मगर इलेक्शन के नतीजे ने बता दिया कि दूसरे राज्यों की भांति बिहार के लोगों को भी विकास पसंद है और वो भी उसे वोट देंगे जो उनके विकास की बात करेगा। सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि अब तो सारा देश देख रहा है कि नितीश के आने के बाद बिहार में काफी काम हुये हैं।
ऐसा भी नहीं है की बिहार को नितीश कुमार ने जन्नत बना दिया है। अभी बहुत से काम ऐसे है जो उन्हें करने की ज़रूरत है। बहुत से काम ऐसे हैं जो उनके अफसर उन्हें बताते हैं कि हो गया मगर सही मायने में वो होता नहीं है। उन्हें काग़ज़ पर तो होता हुआ नज़र आता है मगर सच्चाई में ऐसा नहीं होता। बिहार में योजनाओं की कमी नहीं है, मगर इसका लाभ उचित तरीके से उन लोगों को नहीं मिल रहा जिन के लिए यह योजनाएँ बनी हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि फलां जगह इतने लोगों के नाम बीपीएल में दर्ज हैं, जबकि इतने लोगों को इंरिदा आवास योजना के तहत घर दिये गए। मगर सच्चाई यह है की बीपीएल में ऐसे लोगों के नाम भी दर्ज हैं जो महीने में हजारों कमाते हैं। इंदिरा आवास के तहत जिन लोगों को घर के लिए पैसे मिलते हैं उन्हें भी पूरी रकम नहीं मिलती। शिक्षा में सुधार तो हुआ है मगर इसे बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता। अब भी कई स्कूल ऐसे हैं जहां बहुत सारे बच्चों को पढ़ाने के लिए एक ही टीचर है। बहुत सारे स्कूल ऐसे हैं जहां पीने का पानी नहीं है। बहुत सारे स्कूल ऐसे हैं जहां शौचालय भी नहीं है। अभी भी लाखों की संख्या में ऐसे बच्चे है जिन्हें स्कूल में होना चाहिए, मगर वो कहीं काम कर रहे होते हैं। यही नहीं यदि अचानक स्कूल मुआयना किया जाये तो बहुत से स्कूल में टीचर ग़ायब रहते है।
अफसोस की बात यह है कि सर्व सिक्षा अभियान के तहत जो किताबें मुफ्त बांटे जाने के लिए होती हैं उन्हें कहीं कहीं खरीद कर हासिल किया जाता है। बहुत से स्कूल ऐसे हैं जिनमें शिक्षकों की कमी है। जो हैं भी वो पढ़ाने में रूचि नहीं लेते। स्कूल में बच्चों को खिलाने के लिए जो अनाज आता है उसे कोई और लेकर चला जाता है। स्कूल के टीचर और मुखिया मिलकर इसे बाज़ार में बेच देते हैं। आवासीय प्रमाण-पत्र या फिर जन्म या मृत्‍यु प्रमाण-पत्र बनवाना हो बिना पैसे के बिना यह चीज़ें नहीं बनती। स्कूल में मुफ़्त खाने की बात कही जाती है, मगर कई स्कूल ऐसे हैं जहां हफ्तों हफ्तों खाना नहीं बनता। शिक्षा मित्र के तौर पर जो टीचर बच्चों को पढ़ा रहें हैं उनमें कई ऐसे है जिन्हें अभी खुद पढ़ने की ज़रूरत है। शिक्षा मित्रों को अपनी सेलरी के लिए मुखिया की, चाहे वो अनपढ़ ही क्‍यों न हो, मालिश करनी पड़ती है। ऐसे टीचरों को रिश्वत देने के बाद ही सेलरी मिलती है। टीचर आगे किसी से इसकी शिकायत भी नहीं कर सकते क्‍योंकि उन्हें पता है कि वो भी बेईमानी से ही टीचर बने हैं। कुल मिलाकर नितीश जी के बहुत काम करने के बाद भी अभी बहुत कुछ करने की ज़रूरत हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक रिश्वत लेने-देने का सिलसिला जारी है। इस पूरी बेइमानी में छोटे मोटे दलाल, मुखिया, ग्राम सेवक, बीडीओ और दूसरे सभी अफसर शामिल हैं। जो अफसर लालू प्रसाद के जमाने में बेईमान थे वो अब भी बेईमान हैं। बिहार में जब कई साल बाद मुखिया इलेक्शन हुआ तो लूले-लँगड़े सब मुखिया बन गए। इससे लोगों का तो भला नहीं हुआ मुख्य लोग ग़रीब से अमीर बन गए। अब जबकि नितीश को जनता ने एक और अवसर दिया है तो उन्हें चाहिए कि इन सब खामियों पर क़ाबू पा कर वो जनता की आशाओं पर खड़े उतरें ताकि वो  एक मिसाली मुख्यमंत्री बन सकें।

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

कैसे साफ होगी खेल संघों में जमी मैल!

दिल्ली हाईकोर्ट ने देश के खेल महासंघों के अहम पदों पर कई सालों से कब्जा जमाए बुजुर्गों को राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि सरकार अपनी खेल नीति लागू करे, जिसके तहत किसी भी खेल महासंघ के प्रमुख पदों पर अब 70 साल से अधिक उम्र का व्यक्ति आसीन नहीं रह सकता। खेल मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक भारतीय ओलंपिक महासंघ समेत देश के तमाम राष्ट्रीय खेल महासंघों का अध्यक्ष बारह साल से अधिक और अन्य पदों पर बैठा व्यक्ति आठ साल से अधिक समय तक अपने पदों पर नहीं रह सकता। ज्ञात रहे कि राष्ट्रीय खेल संघों के शीर्ष पदाधिकारियों के कार्यकाल की अवधि और बारी तय करने के खेल मंत्रालय के फैसले के बाद यह तय हो गया था कि भारतीय ओलम्पिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और उन जैसे कई नेताओं के लिए, जो कई कई सालों से खेल संघों पर कब्जा जमाए हुए हैं, परेशानी खड़ी हो जाएगी। यही हुआ भी।
जब सुरेश कलमाडी, विजय कुमार मल्होत्रा, प्रिय रंजन दास मुंशी, जगदीश टाइटलर, जे एस गहलोत, दिगविजय सिंह, यशवंत सिंह और इन जैसे दुसरे नेताओं, ब्यूरोक्रेट और बिजनेसमैन को यह लगने लगा है कि यदि मंत्रालय अपने मकसद में सफल हो गया तो हमारी दुकान तो बंद हो जाएगी, तो इन लोगों ने आपस में मिलकर इस फैसले का विरोध शुरू कर दिया। खेल मंत्रालय के फैसले से जिस-जिस को नुकसान हो सकता था वह सब आपस में मिल गए, इन सबों की यही कोशिश है कि कुछ भी हो खेल संघों पर कब्जा बनाए रखना है। मगर कोर्ट के फैसले से इन सभी को एक बड़ा झटका लगा है।
खेल संघों पर अपनी अपनी नेतागिरी या दादागिरी बचाने के लिए भारतीय ओलम्पिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और राष्ट्रीय खेल संघों के सात पदाधिकारियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल कर इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की। उस समय प्रधानमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया कि वे इस मामले पर गौर करेंगे। कलमाड़ी ने साफ किया कि अगर ये खेल मंत्रालय के दिशानिर्देश लागू किये गये तो इसका देश की खेल गतिविधियों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। कलमाडी जैसी सोच उन दूसरे नेताओं की भी है जो विभिन्न राष्ट्रीय खेल संघों पर कब्जा करके खेलों की लुटिया डुबो रहे हैं। सच्चाई यह है कि आज दुनिया में खेलों में हमारी जो खराब हालत है इसके जिम्मेदार यही वह लोग हैं, जिनका खेलों से कभी कोई वास्‍ता नहीं रहा मगर यह विभिन्न राष्ट्रीय खेल संघों से ऐसे चिपके हुए हैं जैसे कि जोंक। इन में से हो सकता है कि किसी को थोड़ा बहुत खेल की जानकारी हो, मगर खेल संघों पर लगी इस जंग को साफ करना जरूरी है। जहां तक खेल मंत्रालय का सवाल है तो मंत्रालय चाहता है कि ये लोग अपना टर्म पूरा होते ही गद्दी छोड़ दें, ताकि संघों के कामकाज में पारदर्शिता आए और देश में खेलों के विकास के लिए काम शुरू हो सके।
इस बात से हर कोई अवगत है कि शीर्ष पदों पर बैठे इनमें से कई अधिकारी अपने रसूख के बल पर खिलाड़ियों के चयन से लेकर संघ के कामकाज में दखलअंदाजी करते रहे हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उन की मनमानी के कारण ही खेल में भाई-भतीजवाद का सिसिला शुरू हुआ और वास्तविक प्रतिभाएं सामने नहीं आ पाई। पिछले दिनों हॉकी खिलाड़ियों के साथ जो कुछ हुआ वह इसका स्पष्ट उदाहरण है।
एक स्टिंग आपरेशन में भी यह बात सामने आई थी कि खेल अधिकारी खिलाड़ियों को टीम में शामिल करने के लिए उनसे रिश्वत लेते थे। इन बेईमान खेल अधिकारियों की वजह से ही पिछले कुछ सालों में हमने देखा कि हाकी में हमारी हालत कितनी खराब हो गयी। पिछले 80 साल में पहली मर्तबा हमारी हॉकी टीम ओलिंपिक के लिए क्वॉलिफाई तक नहीं कर पाई। अन्य खेलों में भी खिलाड़ियों और खेल संघ के अधिकारीयों के बीच चलने वाली रस्साकशी अक्सर देखने को मिली है। राजनेता, नौकरशाह या बिजनेसमैन जो कहें सच्चाई यह है और जनता भी यही चाहती है कि एक तो राष्ट्रीय खेल संघों में नेताओं को जगह ही नहीं मिले और दूसरे यदि नेता खेल संघों में आ भी जाएं तो यह तय हो कि वह तय सीमा तक ही इस पद पर रहेंगें।
यह मजाक नहीं तो और क्या है कि लालू प्रसाद यादव पिछले नौ सालों से बिहार क्रिकेट एसेसिएशन के अध्यक्ष बने हुए हैं। देश में क्रिकेट में बिहार की हालत आज क्या है वह हर किसी को पता है। पता नहीं विजय कुमार मल्होत्रा को तीरंदाजी कितनी आती है, मगर यह तो शर्मनाक है कि वह भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष पद पर 31 सालों से काबिज हैं। फारूक अब्दुल्ला ने तो और भी कमाल किया हुआ है। हमें नहीं पता कि फारूक अब्दुल्लाह को कितनी क्रिकेट आती है, मगर वह 2006 में जम्मू कश्मीर क्रिकेट एसेसिएशन के आजीवन अध्यक्ष निर्वाचित हो गए। अगर देश में खेलों की हालत बेहतर करनी है तो सरकार को अपने फैसले पर कायम रहना होगा, नहीं तो खेलों की दुनिया में हम और भी पीछे चले जाएंगे। अब कोर्ट ने भी सरकार की बात मानी है इसलिए उम्मीद है कि आने वाले दिनों में हमें खेल संघों में बुजुर्गों को नहीं देखना पड़ेगा।

मैल जिसे साफ करने की जरूरत है

सुरेश कलमाड़ी
कांग्रेस सांसद
उम्र-66 वर्ष
15 साल से भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष
एथलेटिक्स फेडरेशन के मुखिया

प्रियरंजन दास मुंशी
कांग्रेस संसद
उम्र-64 वर्ष
19 साल तक आल इंडिया फुटबाल फेडरेशन के प्रमुख रहे। अब प्रफुल्ल पटेल प्रमुख

अभय सिंह चौटाला
इनलो विद्यायक
उम्र-47 वर्ष
8 साल से भारतीय एमेच्योर बाक्सिंग फेडरेशन के अध्यक्ष

नरेंद्र मोदी
उम्र-59 वर्ष
लगातार तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री
गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष

वीके मल्होत्रा
भजपा विद्यायक
उम्र-79 वर्ष
31 साल से भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष पद पर काबिज़

जगदीश टाइटलर
कांग्रेस नेता
उम्र-66 वर्ष
14 साल से जूडो फेडरेशन आफ इंडिया के अध्यक्ष पद पर कायम

जेएस गहलोत
कांग्रेस नेता
उम्र-65 वर्ष
पिछले 24 साल से भारतीय एमेच्योर कबड्डी संघ के अध्यक्ष

अजय सिंह चौटाला
इनेलो विद्यायक
उम्र-49 वर्ष
पिछले आठ साल से टेबल टेनिस फेडरेशन आफ इंडिया के अध्यक्ष

यशवंत सिन्हा
उम्र-72 वर्ष
नौ साल से आल इंडिया टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष

सुखबीर सिंह बादल
उम्र-47 वर्ष
मुख्यमंत्री, अकाली दल (बादल) के अध्यक्ष
पंजाब में कबड्डी और हॉकी संस्था चलाते हैं

एस. एस. ढींढसा
उम्र-74 वर्ष
शिरोमणि अकाली दल के सांसद
14 सालों तक भारतीय साइकिलिंग संघ के मुखिया रहे

शरद पवार
उम्र-69 वर्ष
राकांपा के संस्थापक और मुखिया
2005 से 2008 तक बीसीसीआई आध्यक्ष, अब आईसीसी के अध्यक्ष

अरुण जेटली
उम्र-57 वर्ष
भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री
दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और बीसीसीआई के उपाध्यक्ष

लालू प्रसाद यादव
उम्र-62 वर्ष
राजद प्रमुख व सांसद, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री
पिछले नौ साल से बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष

फारुख अब्दुल्ला
उम्र-72 वर्ष
केंद्रीय मंत्री व जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री
2006 में जम्मू कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन के आजीवन अध्यक्ष निर्वाचित

सोमवार, नवंबर 08, 2010

नेताओं की जबान पर लगाम जरूरी


बिहार के फतुहा में एक चुनावी सभा में बहुत ही वरिष्‍ठ राजनेताओं में से एक शरद यादव ने एक तो राहुल गांधी की नकल उतारी और फिर उन पर निशाना साधते हुए कहा कि क्या आप जानते हैं, कोई कागज पर लिखता है और आप को दे देता है और आप बस इसे पढ़ देते हैं आप को उठा कर गंगा में फेंक देना चाहिए। लेकिन लोग बीमार हैं। शरद यादव ने यह जो बातें कहीं उसे पूरे देश ने टेलिवीजन पर देखा मगर जैसा कि नेता हमेशा कुछ कहने के बाद मुकर जाते हैं, शरद यादव भी मुकर गए और उसी दिन शाम होते होते कहा उन्हों ने ऐसा कुछ नहीं कहा था और उन्होंने जो कहा था उसका मतलब वह नहीं था जो समाचारों में बताया जा रहा है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि शरद यादव ने राहुल और उनके मां बाप को जो कहा वह तो कहा ही जनता को भी बीमार कह दिया। जी हां उस जनता को जिसके पास वह एक तरह से वोट की भीख ही मांगने गए थे। असलियत यह है कि नेताओं का बस एक ही मकसद होता है अपने विरोधी को नीचा दिखना और अपनी राजनीति चमकाना चाहे इस के लिए किसी भी हद तक क्यों न गिरना पड़े। कुछ ही दिनों पहले की बात है शब्द कुत्ता सुखिर्यों में था। वैसे तो इस शब्द का प्रयोग हर दौर में होता रहा है। हिन्दी फिल्मों में धर्मेन्द्र हमेशा कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा कहते आए हैं और लोग एक दूसरे को कुत्ते की मौत मारते आए हैं। मगर कुछ माह पहले कुत्ता का महत्व इस लिए बढ़ गया क्योकि इस बार इसका प्रयोग भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किया था। लोकसभा में कटौती प्रस्तावों का समर्थन न करने के लिए भारतीय राजनीति के दो बड़े यादवों मुलायम सिंह और लालू प्रसाद पर निशाना साधते हुए गडकरी पार्टी बैठक में कहा था ”बड़े दहाड़ते थे शेर जैसे और कुत्तो के जैसे बनकर सोनिया जी और कांग्रेस के तलवे चाटने लगे।” कहने को तो गडकरी ने ऐसा कह दिया मगर उन्हें बाद में जनता का विरोध देख कर अंदाजा हो गया कि उन्हों ने मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जैसे बड़े नेता को ऐसा कह कर एक बड़ी भूल कर दी। जब उन्हें इसका अहसास हुआ तो उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने सिर्फ एक मुहावरे का इस्तेमाल किया था और किसी को आहत करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं अपने द्वारा की गई टिप्पणी के लिए खेद व्यक्त करता हूं और अपने शब्दों को वापस लेता हूं। मेरे मन में मुलायम सिंह और लालू प्रसाद के लिए अत्यंत सम्मान है। किसी को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ठेस पहुंचाने का मेरा इरादा नहीं था। गडकरी के खेद व्यक्त करने के बाद मुलायम सिंह यादव तो कुछ नर्म पड़ गए थे मगर लालू कहां पीछे रहने वाले थे उन्हों ने कहा था गडकरी कान पकडकर माफी मांगे नहीं तो उनकी पार्टी जन-आंदोलन छेड़ेगी।

यह मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह ने ‘कुत्ता प्रकरण’ में कूदते हुए सपा से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को उनके बयान के लिए माफ करने की अपील के साथ कहा है कि वह भली-भांति जानते हैं कि देश की राजनीति में सचमुच कुत्ता कौन है। अमर ने अपने ब्लाग पर लिखा ”गडकरी के एक बयान पर काफी तूफान मचा हुआ है। बयान पर मचे तूफान के बाद गडकरी की ओर से खेद प्रकट कर देना मामले का अंत कर देने के लिए काफी था। समाजवादी पार्टी आज कल मुद्दा विहीन है, इसलिए चर्चा में बने रहने के लिए गडकरी के खेद प्रकट करने के बाद भी उन्हें कुत्ता कह डाला। ऐसे में सपा में और गडकरी में क्या स्तरीय अंतर रहा। मुझे भली-भांति पता चल गया है कि इस देश की राजनीति में सचमुच कुत्ता कौन है।

अब प्रश्न यह है कि क्या गडकरी, शरद यादव या दूसरे नेता अनजाने में ऐसा गलत कह जाते हैं या फिर यही उनकी असलियत है। सच्चाई यह है कि भारतीय राजनीति में सिर्फ गडकरी ही नहीं ऐसे बहुत से नेता हैं जो आए दिन ऐसे शब्दों का इस्तमाल करते रहते हैं जिन्हें एक सभ्य समाज में किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। मुलायम सिंह और लालू प्रसाद तो आए दिन ऐसा कुछ न कुछ बोलते हैं जिन्हें बहुत बुरा नही ंतो अच्छा भी नहीं कहा जा सकता।

सिर्फ लालू प्रसाद ही नहीं बल्कि ऐसे नेताओं की संख्या कम नहीं है जो आए दिन कुछ न कुछ ऐसी टिप्पणी जरूर करते हैं जिसे शालीन नहीं कहा जा सकता। गत वर्ष उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी और वरूण गांधी को अपने विवादास्पद बयानों के लिए सबसे ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ी थी। मायावती के खिलाफ टिप्पणी करके रीता ने अपने लिए मुसीबत बुलाई तो वरूण गांधी ने हिंदुत्व की तरफ बढ़ने वाले हाथ को तोड़ने की बात कहकर आफत मोल ले ली। गत वर्ष पंद्रह जुलाई को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने दुष्कर्म के एक मामले में मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करके बसपा कार्यकरताओं के गुस्से को दावत दे दी। लोकसभा चुनावों के दौरान पीलीभीत से भाजपा के उम्मीदवार वरूण गांधी भी विवादों में घिरे। उन्होंने कथित तौर पर कहा कि हिन्दुत्व की ओर बढ़ने वाला हाथ तोड़ दिया जाएगा। एक बार महिला आरक्षण्ा के संबंध में मुलायम ने कहा कि आरक्षण लागू हो जाने से बड़े बड़े घरों की लड़कियां राजनीति में आएंगी जिन्हें लड़के देख कर सिटी बजाएंगे। कुल मिलाकर नेताओं में किसी को यह मुंह नहीं है कि वह दूसरों को बुरा कहें जिसे जब अवसर मिलता है गाली बोल देते हैं और जब बात बिगड़ती है तो यह कह कर मामला शांत करने की कोशिश करते हैं कि हमारा मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं था। पहले जो काम अन्य नेता करते रहे हैं इस बार वह शरद यादव ने किया है। नए और युवा नेता जोश में कुछ गलत बोल जाऐ तो बात समझ में आती है मगर शरद यादव जैसा सीनियर नेता जब जनता को ही बीमार कह दे तो इस से देश में राजनीति के घटते स्तर का अंदाजा होता है।