बुधवार, दिसंबर 22, 2010

सचिन तेरा जवाब नहीं !


इसी साल 11 अक्टूबर को जब सचिन तेंदुल्कर ने अपने टेस्ट कैरियर की 49 वीं संचूरी बनाई थी तो उस के बाद हर कोई बस उसी दिन का इंतज़ार कर रहा था की वो दिन जल्दी आए और सचिन अपने शतकों का अर्धशतक मुकम्मल कर लें। अंततः वो दिन भी आ गया और सचिन ने अपने शतकों का अर्धशतक भी पूरा कर लीया। यह अफसोस की बात है की भारत को इस टेस्ट में हार का मुंह देखना पड़ा मगर इतने कठिन हालत में भी शतक बना कर सचिन ने बता दिया की उनमें अभी भी न केवल बहुत किरकेट बची है बल्कि वो किसी भी दूसरे बल्लेबाज़ से बेहतर हैं। इस टेस्ट में सचिन 111 रन बना कर अविजित रहे हो सकता है उन्हें यदि कुछ खिलाड़ियों का साथ मिला होता तो वो इस टेस्ट को बचाने में सफल भी हो जाते। एक लंबे समय से किरकेट खेलते आ रहे सचिन के नाम रिकार्डों की एक लंबी फेहरिस्त है। सचिन के नाम पर वनडे मैचों में 46 शतक दर्ज हैं और इस तरह से वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में शतकों का सैकड़ा पूरा करने के करीब हैं। अब सचिन के चाहने वालों को उस दिन का इंतज़ार है जब वो इंटरनेशनल किरकेट में शतकों का शतक पूरा करेंगे। इन दिनों सचिन जिस फार्म में हैं उस से तो यही लगता है की वो दिन भी दूर नहीं जब सचिन यह उपलब्धि भी हासिल कर लेंगे। टेस्ट किरकेट में एक शतक की तमन्ना रखने वाले खिलाड़ियों की कमी नहीं है मगर जब कोई खिलाड़ी एक दो नहीं बल्कि 50 शतक पूरे कर ले तो उसका इस उपलब्धि पर नाज़ करना और घमंड दिखाना लाज़मी है मगर कमाल के हैं सचिन जो पचास शतक लगाने के बाद भी कुछ ऐसे नज़र आते हैं जैसे उनहों ने कोई कमाल किया ही नहीं। तेंदुलकर यह उपलब्धि हासिल करने वाले न सिर्फ दुनिया के पहले बल्लेबाज ही नहीं बने है बल्कि ऐसा लगता है उनके इस रिकार्ड तक पहुंचना अब किसी दूसरे बल्लेबाज़ के बस का नहीं है। सब से अधिक शतक के मामले में पोंटिंग 39 शतक के साथ दूसरे जबकि जैक्स कालिस 38 शतक लगाकर तीसरे नंबर पर हैं। तेंदुलकर दुनिया के उन गिने चुने बल्लेबाजों में शामिल हैं जिन्होंने टेस्ट खेलने वाले हर देश के खिलाफ शतक लगाए हैं। उन्होंने सर्वाधिक 11 शतक आस्ट्रेलिया के खिलाफ बनाए हैं। इसके बाद श्रीलंका का नंबर आता है जिसके खिलाफ सचिन ने नौ शतक लगाए हैं। इन के अलावा सचिन ने इंग्लैंड के खिलाफ सात शतक, दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ छह शतक, बांग्लादेश के खिलाफ पांच शतक, न्यूजीलैंड के खिलाफ चार शतक, वेस्टइंडीज और जिंबाब्वे के खिलाफ तीन-तीन शतक और पाकिस्तान के खिलाफ दो शतक लगाए हैं. अपने पचास शतकों में से से उन्होंने 22 शतक स्वदेश में जबकि 28 शतक विदेश में लगाए हैं।
तेंदुलकर ने अपना पहला टेस्ट शतक 20 साल से भी अधिक समय पहले 14 अगस्त 1990 को इंग्लैंड के खिलाफ मैनचेस्टर में बनाया था। भारत की तरफ से सबसे कम उम्र में शतक लगाने वाले बल्लेबाज तेंदुलकर ने अपना 10वां शतक भी इंग्लैंड के खिलाफ नाटिंघम में 1996 में लगाया था।सचिन ने अपना 20 वां शतक अक्टूबर 1999 में न्यूजीलैंड के खिलाफ लगाया। उन्होंने इंग्लैंड के खिलाफ ही 2002 में लीड्स में 30वां शतक लगाकर सर डान ब्रैडमैन को पीछे छोड़ा था और फिर दस दिसंबर 2005 को श्रीलंका के खिलाफ दिल्ली में 35वां शतक जमाकर हमवतन सुनील गावस्कर के रिकार्ड को तोड़ा था। सचिन ने अपना 40 वां शतक नवंबर 2006 में लगाया.
किरकेट में यह बहस काफी दिनों से हो रही है की ऑस्ट्रेलिया के सर डॉन ब्रेडमैंन के बाद सब से अच्छा बल्लेबाज़ कौन है। मगर पिछले एक दो सालों से अब एक नई बहस यह शुरू हुई है की सचिन बेहतर हैं या डॉन ब्रेडमैंन। आस्ट्रेलियाई अखबार ने इस संबंध में बाकायदा आनलाइन सर्वे कराया जिसमें सचिन को विजेता घोषित किया गया। वहाँ के अखबार 'सिडनी मार्निंग हेराल्ड' ने अपने आनलाइन सर्वे में 'सबसे महान क्रिकेटर-ब्रैडमैन या तेंदुलकर?' लोगों को वोट करने के लिए कहा है जिसमें 20,768 क्रिकेट प्रशंसकों ने अपने मत दिए। इसमें तेंदुलकर को 67 और ब्रैडमैन को 33 प्रतिशत मत मिले। खैर उस समय और मौजूदा समय के हालात अलग अलग हैं इस लिए यह बहस करना कोई बहुत बेहतर नहीं है की सचिन बेहतर है या ब्रैडमैन बेहतर थे मगर इतना तो तै है की सचिन अब तक के टॉप 10 बल्लेबाज़ में ज़रूर आएंगे और जैसा की सर्वे से साबित हुआ की वो टॉप दस में नहीं बल्कि किसी दूसरे बल्लेबाज़ का नंबर सचिन के बाद ही आता है।
सचिन ने अपने पूरे करियर में एक दू नहीं बल्कि अनेक रिकार्ड बनाए हैं। इन में कुछ रिकार्ड तो ऐसे हैं जो आने वाले कुछ सालों में टूट जाएँगे मगर कई ऐसे भी है जिनके टूटने पर शक है। यही कारण है की कई पूर्व किरकेटरों ने माना है की एक आम इंसान इतने दिनों तक इतना बेहतर तरीके से नहीं खेल सकता। कमाल की बात यह है की जिस सचिन ने अनेक रिकार्ड बनाए हैं उस सचिन के लिए कई रिकार्ड ऐसे हैं जो न सिर्फ अभी भी उनकी पहुँच से दूर हैं बल्कि इन में कुछ ऐसे है जिन तक पहुंचना सचिन के लिए संभव नहीं है। टेस्ट किरकेट में एक पारी में सब से बड़ा स्कोर, प्रथम श्रेणी किरकेट की एक पारी में सब से बड़ा स्कोर, प्रथम श्रेणी किरकेट में सब से अधिक शतक, प्रथम श्रेणी में सब से अधिक रन, एक टेस्ट में सब से अधिक रन, एक दिन में सब से अधिक रन और एक कलेंडर साल में सबसे अधिक रन। यह सब बलेबाजी के ऐसे रिकार्ड हैं जिन पर सचिन का कब्जा नहीं है। टेस्ट की एक पारी में सब से ज़्यादा रन बनाने का रिकार्ड वेस्ट इंडीज के ब्रायन लारा के नाम है। लारा 400 रन की पारी खेल चुके हैं। उसी प्रकार लारा ने प्रथम श्रेणी में एक बार अविजित 501 रन भी बनाए हैं। जहां तक लारा ने टेस्ट में दो बार 300 से अधिक रन बनये हैं वहीं सचिन ने अब तक टेस्ट में 250 का आंकड़ा भी नहीं छुआ है। उनका टेस्ट में सब से बड़ा सकोरे 248 रन है जो उनहों ने बांग्लादेश के खिलाफ दिसंबर 2004 में बनाए थे। प्रथम श्रेणी किरकेट में भी सचिन ने कभी 300 रन नहीं बनाए हैं। प्रथम श्रेणी किरकेट में सचिन ने 77 शतक लगाए हैं जबकि इस सिलसिले का रिकार्ड इंग्लैंड के जॅक हॉब्स के नाम है जिन्हों ने अपने करियर में 199 शतक लगाए। उसी प्रकार हॉब्स ने प्रथम श्रेणी में 61 हज़ार से अधिक रन बनाए जबकि सचिन ने प्रथम श्रेणी में अब तक 23406 रन बनाए हैं। किसी एक टेस्ट में सब से ज़्यादा रन बनाने का रिकार्ड इंग्लैंड के ग्राहम गूच के नाम है। गूच ने भारत के वीरुध दोनों परी में शतक बनाते हुये 456 रन बनाए थे जब की सचिन का किसी एक टेस्ट में सब से अधिक रन 301 रन है। इतने रन सचिन ने 2004 में सिडनी में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ बनाए थे। एक ओर जहां सचिन ने अभी तक किसी सिरीज़ में 500 से अधिक रन नहीं बनाए हैं वहीं किसी एक सिरीज़ में सब से अधिक रन बनाने का रिकार्ड ब्रैडमैन के नाम है उनहों ने एक सिरीज़ में इंग्लैंड के खिलाफ 974 रन बनाए थे। ब्रैडमैन ने एक बार एक ही दिन में 309 रन बनाए थे जबकि सचिन ने अभी तक कभी भी एक दिन में 200 रन भी नहीं बनाए हैं। एक कलेंडर साल में भी सब से अधिक रन बनाने का रिकार्ड साचीन के बजाए किसी और खिलाड़ी के नाम है। पाकिस्तान के मोहम्मद युसुफ ने 2006 में 1788 रन बनाए थे जो की एक साल में सब से अधिक रन का रिकार्ड है। युसुफ के नाम एक साल में सब से अधिक नौ शतक का रिकार्ड भी है। सचिन ने अब तक एक साल में सात शतक तक लगाए हैं। इस तरह और भी कई रिकार्ड ऐसे हैं जो सचिन के बजाए किसी और खिलाड़ी के नाम दर्ज है मगर इस से उनकी महानता कम नहीं होती और अब सारी दुनिया ने उन्हें विश्व का सब से बड़ा बल्लेबाज़ मान लिया है।

सोमवार, नवंबर 29, 2010

नितीश की आँधी में बुझ गई लालटेन, उजड़ गई झोपड़ी


यह तो पहले ही तय हो गया था की बिहार के इलेक्शन में नितीश कुमार और उनकी टीम को सफलता मिलेगी मगर सफलता इतनी बड़ी होगी की लालू की लालटेन का तेल खत्म हो जाएगा और पासवान की झोपड़ी उड़ जाएगी इसका अंदाज़ा किसी को नहीं था। पासवान की झोपड़ी तो उडी ही लालू की पार्टी का भी यह हाल हुआ की अब बिहार में विपक्ष नाम की कोई चीज़ ही नहीं बची। फ़ेसबुक पर मेरे एक मित्र परवेज़ अहमद ने सही लिखा है कि बिहार की जनता को अब लालटेन नहीं बल्कि हैलोजन लैम्प चाहिए। यह सही भी है। जब हमेशा बिजली मिलने लगेगी तो फिर लालटेन का क्‍या काम। लालटेन तो पुरानी चीज़ हो गयी, उसमें बार बार किरासन तेल डालने का झंझट भी है। यही मामला झोपड़ी के साथ भी है। हर कोई चाहता है की उसका विकास हो, उसे भी अच्छे दिन देखने को मिलें और उसका घर भी पक्का का हो जाए। यही सही भी है झोपड़ी में रहने की तमन्ना क्‍यों की जाये पक्के मकान का ख्‍वाब क्‍यों न देखा जाये। हालांकि लोकतंत्र में विपक्ष का नहीं होना अच्छी बात नहीं है, मगर जब कोई इस लायक हो जाये की उसे वोट ही न मिले तो कोई दूसरा क्या करे। नितीश एंड कंपनी को जो शानदार सफलता मिली है, उस से यह साबित हो गया है कि फिलहाल बिहार में वही जनता की सब से पहली पसंद हैं और उनके मुकाबले में जनता ने लालू और पासवान को घास नहीं डाली।
लालू और पासवान को भी अब इस बात का अंदाज़ा अच्छी तरह से हो गया होगा कि बिहार के लोग बिहारी तो हैं, मगर दिल्ली वाले 'बिहारी' नहीं हैं। इस बार जनता ने इन दो नेताओं का जो हाल किया है उसे वो काफी दिनों तक भूल नहीं पाएंगे। आखिर इन दोनों को यह बात समझ में क्‍यों नहीं आती की जनता को विकास चाहिए, उसे किसी के बेटे या बीवी से क्या मतलब? लालू और पासवान दोनों ने अपने अपने बेटे को इलेक्शन में घुमाया। मगर जनता ने उन्हें उनकी औकात बता दी और बता दिया कि न तो लालू का बेटा अजहरुद्दीन है और न ही पासवान का बेटा संजय दत्त। एक ने कोई ऐसा मैच ही नहीं खेला कि उसे याद रखा जाये, दूसरे ने कभी कोई फिल्म भी बनाई है इसका किसी पता ही नहीं। रहा सवाल पत्नी का तो राबड़ी देवी में ऐसी कौन सी खूबी है कि जनता उसे वोट दे। जनता को तो यह पता था कि पति ने तो हमें लूटा ही इस महिला ने भी खूब लूटा तो फिर दोबारा अवसर क्‍यों दिया जाये। यही कारण है की राबड़ी दो स्थानों से इलेक्शन लड़ी और दोनों जगह से हार गयीं। पासवान के भाई का भी बुरा हाल हुआ।
लालू और पासवान जी को जनता ने अपना जनादेश सुना कर यह बताने की कोशिश की है कि अब बिहार के लोगों में भी समझ आ गयी है। उन्हें भी लगने लगा है कि जात-पात और धर्म की राजनीति बकवास की चीज़ है। सब से ज़रूरी चीज़ है विकास। विकास के बिना सब कुछ बेकार है। क्या बिहारी नहीं चाहते की उनके घर में भी बिजली आए, क्या बिहारी नहीं चाहते की बिहार की सड़कें भी देश के दूसरे राज्यों की सड़कों जैसी हों, क्या बिहारी यह नहीं चाहते की जब वो शाम को दिन भर काम करके अपने घर लौटें तो उन्हें कोई लूटे नहीं, क्या बिहार के ठेकेदार यह नहीं चाहते उनसे कोई रंगदारी टैक्स नहीं ले, क्या स्कूल के विद्यार्थी यह नहीं चाहते कि उनका टीचर पाबंदी से स्कूल आए, क्या कॉलेज के विद्यार्थी यह नहीं चाहते की देश के दूसरे कॉलेज और यूनिवर्सिटी की भांति उनका सेशन लेट न हो। बिहार में भी ऐसा ही चाहने वाले लोग हैं और उन्हें ऐसा माहौल दिया जा रहा है या फिर ऐसा माहौल देने की हर संभव कोशिश की जा रही है, तो फिर नितीश एंड कंपनी की मदद क्‍यों नहीं की जाये। उन्हें वोट क्‍यों नहीं दिया जाये। इलेक्शन से पहले ऐसा कहने वालों की कमी नहीं थी कि बिहार में जात-पात के आधार पर इलेक्शन होता है, इसलिए नितीश ने लाख काम किए हों मगर लालू और पासवान को भी बहुत सीटें मिलेंगी। मगर इलेक्शन के नतीजे ने बता दिया कि दूसरे राज्यों की भांति बिहार के लोगों को भी विकास पसंद है और वो भी उसे वोट देंगे जो उनके विकास की बात करेगा। सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि अब तो सारा देश देख रहा है कि नितीश के आने के बाद बिहार में काफी काम हुये हैं।
ऐसा भी नहीं है की बिहार को नितीश कुमार ने जन्नत बना दिया है। अभी बहुत से काम ऐसे है जो उन्हें करने की ज़रूरत है। बहुत से काम ऐसे हैं जो उनके अफसर उन्हें बताते हैं कि हो गया मगर सही मायने में वो होता नहीं है। उन्हें काग़ज़ पर तो होता हुआ नज़र आता है मगर सच्चाई में ऐसा नहीं होता। बिहार में योजनाओं की कमी नहीं है, मगर इसका लाभ उचित तरीके से उन लोगों को नहीं मिल रहा जिन के लिए यह योजनाएँ बनी हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि फलां जगह इतने लोगों के नाम बीपीएल में दर्ज हैं, जबकि इतने लोगों को इंरिदा आवास योजना के तहत घर दिये गए। मगर सच्चाई यह है की बीपीएल में ऐसे लोगों के नाम भी दर्ज हैं जो महीने में हजारों कमाते हैं। इंदिरा आवास के तहत जिन लोगों को घर के लिए पैसे मिलते हैं उन्हें भी पूरी रकम नहीं मिलती। शिक्षा में सुधार तो हुआ है मगर इसे बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता। अब भी कई स्कूल ऐसे हैं जहां बहुत सारे बच्चों को पढ़ाने के लिए एक ही टीचर है। बहुत सारे स्कूल ऐसे हैं जहां पीने का पानी नहीं है। बहुत सारे स्कूल ऐसे हैं जहां शौचालय भी नहीं है। अभी भी लाखों की संख्या में ऐसे बच्चे है जिन्हें स्कूल में होना चाहिए, मगर वो कहीं काम कर रहे होते हैं। यही नहीं यदि अचानक स्कूल मुआयना किया जाये तो बहुत से स्कूल में टीचर ग़ायब रहते है।
अफसोस की बात यह है कि सर्व सिक्षा अभियान के तहत जो किताबें मुफ्त बांटे जाने के लिए होती हैं उन्हें कहीं कहीं खरीद कर हासिल किया जाता है। बहुत से स्कूल ऐसे हैं जिनमें शिक्षकों की कमी है। जो हैं भी वो पढ़ाने में रूचि नहीं लेते। स्कूल में बच्चों को खिलाने के लिए जो अनाज आता है उसे कोई और लेकर चला जाता है। स्कूल के टीचर और मुखिया मिलकर इसे बाज़ार में बेच देते हैं। आवासीय प्रमाण-पत्र या फिर जन्म या मृत्‍यु प्रमाण-पत्र बनवाना हो बिना पैसे के बिना यह चीज़ें नहीं बनती। स्कूल में मुफ़्त खाने की बात कही जाती है, मगर कई स्कूल ऐसे हैं जहां हफ्तों हफ्तों खाना नहीं बनता। शिक्षा मित्र के तौर पर जो टीचर बच्चों को पढ़ा रहें हैं उनमें कई ऐसे है जिन्हें अभी खुद पढ़ने की ज़रूरत है। शिक्षा मित्रों को अपनी सेलरी के लिए मुखिया की, चाहे वो अनपढ़ ही क्‍यों न हो, मालिश करनी पड़ती है। ऐसे टीचरों को रिश्वत देने के बाद ही सेलरी मिलती है। टीचर आगे किसी से इसकी शिकायत भी नहीं कर सकते क्‍योंकि उन्हें पता है कि वो भी बेईमानी से ही टीचर बने हैं। कुल मिलाकर नितीश जी के बहुत काम करने के बाद भी अभी बहुत कुछ करने की ज़रूरत हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक रिश्वत लेने-देने का सिलसिला जारी है। इस पूरी बेइमानी में छोटे मोटे दलाल, मुखिया, ग्राम सेवक, बीडीओ और दूसरे सभी अफसर शामिल हैं। जो अफसर लालू प्रसाद के जमाने में बेईमान थे वो अब भी बेईमान हैं। बिहार में जब कई साल बाद मुखिया इलेक्शन हुआ तो लूले-लँगड़े सब मुखिया बन गए। इससे लोगों का तो भला नहीं हुआ मुख्य लोग ग़रीब से अमीर बन गए। अब जबकि नितीश को जनता ने एक और अवसर दिया है तो उन्हें चाहिए कि इन सब खामियों पर क़ाबू पा कर वो जनता की आशाओं पर खड़े उतरें ताकि वो  एक मिसाली मुख्यमंत्री बन सकें।

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

कैसे साफ होगी खेल संघों में जमी मैल!

दिल्ली हाईकोर्ट ने देश के खेल महासंघों के अहम पदों पर कई सालों से कब्जा जमाए बुजुर्गों को राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि सरकार अपनी खेल नीति लागू करे, जिसके तहत किसी भी खेल महासंघ के प्रमुख पदों पर अब 70 साल से अधिक उम्र का व्यक्ति आसीन नहीं रह सकता। खेल मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक भारतीय ओलंपिक महासंघ समेत देश के तमाम राष्ट्रीय खेल महासंघों का अध्यक्ष बारह साल से अधिक और अन्य पदों पर बैठा व्यक्ति आठ साल से अधिक समय तक अपने पदों पर नहीं रह सकता। ज्ञात रहे कि राष्ट्रीय खेल संघों के शीर्ष पदाधिकारियों के कार्यकाल की अवधि और बारी तय करने के खेल मंत्रालय के फैसले के बाद यह तय हो गया था कि भारतीय ओलम्पिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और उन जैसे कई नेताओं के लिए, जो कई कई सालों से खेल संघों पर कब्जा जमाए हुए हैं, परेशानी खड़ी हो जाएगी। यही हुआ भी।
जब सुरेश कलमाडी, विजय कुमार मल्होत्रा, प्रिय रंजन दास मुंशी, जगदीश टाइटलर, जे एस गहलोत, दिगविजय सिंह, यशवंत सिंह और इन जैसे दुसरे नेताओं, ब्यूरोक्रेट और बिजनेसमैन को यह लगने लगा है कि यदि मंत्रालय अपने मकसद में सफल हो गया तो हमारी दुकान तो बंद हो जाएगी, तो इन लोगों ने आपस में मिलकर इस फैसले का विरोध शुरू कर दिया। खेल मंत्रालय के फैसले से जिस-जिस को नुकसान हो सकता था वह सब आपस में मिल गए, इन सबों की यही कोशिश है कि कुछ भी हो खेल संघों पर कब्जा बनाए रखना है। मगर कोर्ट के फैसले से इन सभी को एक बड़ा झटका लगा है।
खेल संघों पर अपनी अपनी नेतागिरी या दादागिरी बचाने के लिए भारतीय ओलम्पिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी और राष्ट्रीय खेल संघों के सात पदाधिकारियों ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल कर इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की। उस समय प्रधानमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया कि वे इस मामले पर गौर करेंगे। कलमाड़ी ने साफ किया कि अगर ये खेल मंत्रालय के दिशानिर्देश लागू किये गये तो इसका देश की खेल गतिविधियों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। कलमाडी जैसी सोच उन दूसरे नेताओं की भी है जो विभिन्न राष्ट्रीय खेल संघों पर कब्जा करके खेलों की लुटिया डुबो रहे हैं। सच्चाई यह है कि आज दुनिया में खेलों में हमारी जो खराब हालत है इसके जिम्मेदार यही वह लोग हैं, जिनका खेलों से कभी कोई वास्‍ता नहीं रहा मगर यह विभिन्न राष्ट्रीय खेल संघों से ऐसे चिपके हुए हैं जैसे कि जोंक। इन में से हो सकता है कि किसी को थोड़ा बहुत खेल की जानकारी हो, मगर खेल संघों पर लगी इस जंग को साफ करना जरूरी है। जहां तक खेल मंत्रालय का सवाल है तो मंत्रालय चाहता है कि ये लोग अपना टर्म पूरा होते ही गद्दी छोड़ दें, ताकि संघों के कामकाज में पारदर्शिता आए और देश में खेलों के विकास के लिए काम शुरू हो सके।
इस बात से हर कोई अवगत है कि शीर्ष पदों पर बैठे इनमें से कई अधिकारी अपने रसूख के बल पर खिलाड़ियों के चयन से लेकर संघ के कामकाज में दखलअंदाजी करते रहे हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि उन की मनमानी के कारण ही खेल में भाई-भतीजवाद का सिसिला शुरू हुआ और वास्तविक प्रतिभाएं सामने नहीं आ पाई। पिछले दिनों हॉकी खिलाड़ियों के साथ जो कुछ हुआ वह इसका स्पष्ट उदाहरण है।
एक स्टिंग आपरेशन में भी यह बात सामने आई थी कि खेल अधिकारी खिलाड़ियों को टीम में शामिल करने के लिए उनसे रिश्वत लेते थे। इन बेईमान खेल अधिकारियों की वजह से ही पिछले कुछ सालों में हमने देखा कि हाकी में हमारी हालत कितनी खराब हो गयी। पिछले 80 साल में पहली मर्तबा हमारी हॉकी टीम ओलिंपिक के लिए क्वॉलिफाई तक नहीं कर पाई। अन्य खेलों में भी खिलाड़ियों और खेल संघ के अधिकारीयों के बीच चलने वाली रस्साकशी अक्सर देखने को मिली है। राजनेता, नौकरशाह या बिजनेसमैन जो कहें सच्चाई यह है और जनता भी यही चाहती है कि एक तो राष्ट्रीय खेल संघों में नेताओं को जगह ही नहीं मिले और दूसरे यदि नेता खेल संघों में आ भी जाएं तो यह तय हो कि वह तय सीमा तक ही इस पद पर रहेंगें।
यह मजाक नहीं तो और क्या है कि लालू प्रसाद यादव पिछले नौ सालों से बिहार क्रिकेट एसेसिएशन के अध्यक्ष बने हुए हैं। देश में क्रिकेट में बिहार की हालत आज क्या है वह हर किसी को पता है। पता नहीं विजय कुमार मल्होत्रा को तीरंदाजी कितनी आती है, मगर यह तो शर्मनाक है कि वह भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष पद पर 31 सालों से काबिज हैं। फारूक अब्दुल्ला ने तो और भी कमाल किया हुआ है। हमें नहीं पता कि फारूक अब्दुल्लाह को कितनी क्रिकेट आती है, मगर वह 2006 में जम्मू कश्मीर क्रिकेट एसेसिएशन के आजीवन अध्यक्ष निर्वाचित हो गए। अगर देश में खेलों की हालत बेहतर करनी है तो सरकार को अपने फैसले पर कायम रहना होगा, नहीं तो खेलों की दुनिया में हम और भी पीछे चले जाएंगे। अब कोर्ट ने भी सरकार की बात मानी है इसलिए उम्मीद है कि आने वाले दिनों में हमें खेल संघों में बुजुर्गों को नहीं देखना पड़ेगा।

मैल जिसे साफ करने की जरूरत है

सुरेश कलमाड़ी
कांग्रेस सांसद
उम्र-66 वर्ष
15 साल से भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष
एथलेटिक्स फेडरेशन के मुखिया

प्रियरंजन दास मुंशी
कांग्रेस संसद
उम्र-64 वर्ष
19 साल तक आल इंडिया फुटबाल फेडरेशन के प्रमुख रहे। अब प्रफुल्ल पटेल प्रमुख

अभय सिंह चौटाला
इनलो विद्यायक
उम्र-47 वर्ष
8 साल से भारतीय एमेच्योर बाक्सिंग फेडरेशन के अध्यक्ष

नरेंद्र मोदी
उम्र-59 वर्ष
लगातार तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री
गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष

वीके मल्होत्रा
भजपा विद्यायक
उम्र-79 वर्ष
31 साल से भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष पद पर काबिज़

जगदीश टाइटलर
कांग्रेस नेता
उम्र-66 वर्ष
14 साल से जूडो फेडरेशन आफ इंडिया के अध्यक्ष पद पर कायम

जेएस गहलोत
कांग्रेस नेता
उम्र-65 वर्ष
पिछले 24 साल से भारतीय एमेच्योर कबड्डी संघ के अध्यक्ष

अजय सिंह चौटाला
इनेलो विद्यायक
उम्र-49 वर्ष
पिछले आठ साल से टेबल टेनिस फेडरेशन आफ इंडिया के अध्यक्ष

यशवंत सिन्हा
उम्र-72 वर्ष
नौ साल से आल इंडिया टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष

सुखबीर सिंह बादल
उम्र-47 वर्ष
मुख्यमंत्री, अकाली दल (बादल) के अध्यक्ष
पंजाब में कबड्डी और हॉकी संस्था चलाते हैं

एस. एस. ढींढसा
उम्र-74 वर्ष
शिरोमणि अकाली दल के सांसद
14 सालों तक भारतीय साइकिलिंग संघ के मुखिया रहे

शरद पवार
उम्र-69 वर्ष
राकांपा के संस्थापक और मुखिया
2005 से 2008 तक बीसीसीआई आध्यक्ष, अब आईसीसी के अध्यक्ष

अरुण जेटली
उम्र-57 वर्ष
भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री
दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और बीसीसीआई के उपाध्यक्ष

लालू प्रसाद यादव
उम्र-62 वर्ष
राजद प्रमुख व सांसद, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री
पिछले नौ साल से बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष

फारुख अब्दुल्ला
उम्र-72 वर्ष
केंद्रीय मंत्री व जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री
2006 में जम्मू कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन के आजीवन अध्यक्ष निर्वाचित

सोमवार, नवंबर 08, 2010

नेताओं की जबान पर लगाम जरूरी


बिहार के फतुहा में एक चुनावी सभा में बहुत ही वरिष्‍ठ राजनेताओं में से एक शरद यादव ने एक तो राहुल गांधी की नकल उतारी और फिर उन पर निशाना साधते हुए कहा कि क्या आप जानते हैं, कोई कागज पर लिखता है और आप को दे देता है और आप बस इसे पढ़ देते हैं आप को उठा कर गंगा में फेंक देना चाहिए। लेकिन लोग बीमार हैं। शरद यादव ने यह जो बातें कहीं उसे पूरे देश ने टेलिवीजन पर देखा मगर जैसा कि नेता हमेशा कुछ कहने के बाद मुकर जाते हैं, शरद यादव भी मुकर गए और उसी दिन शाम होते होते कहा उन्हों ने ऐसा कुछ नहीं कहा था और उन्होंने जो कहा था उसका मतलब वह नहीं था जो समाचारों में बताया जा रहा है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि शरद यादव ने राहुल और उनके मां बाप को जो कहा वह तो कहा ही जनता को भी बीमार कह दिया। जी हां उस जनता को जिसके पास वह एक तरह से वोट की भीख ही मांगने गए थे। असलियत यह है कि नेताओं का बस एक ही मकसद होता है अपने विरोधी को नीचा दिखना और अपनी राजनीति चमकाना चाहे इस के लिए किसी भी हद तक क्यों न गिरना पड़े। कुछ ही दिनों पहले की बात है शब्द कुत्ता सुखिर्यों में था। वैसे तो इस शब्द का प्रयोग हर दौर में होता रहा है। हिन्दी फिल्मों में धर्मेन्द्र हमेशा कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा कहते आए हैं और लोग एक दूसरे को कुत्ते की मौत मारते आए हैं। मगर कुछ माह पहले कुत्ता का महत्व इस लिए बढ़ गया क्योकि इस बार इसका प्रयोग भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किया था। लोकसभा में कटौती प्रस्तावों का समर्थन न करने के लिए भारतीय राजनीति के दो बड़े यादवों मुलायम सिंह और लालू प्रसाद पर निशाना साधते हुए गडकरी पार्टी बैठक में कहा था ”बड़े दहाड़ते थे शेर जैसे और कुत्तो के जैसे बनकर सोनिया जी और कांग्रेस के तलवे चाटने लगे।” कहने को तो गडकरी ने ऐसा कह दिया मगर उन्हें बाद में जनता का विरोध देख कर अंदाजा हो गया कि उन्हों ने मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जैसे बड़े नेता को ऐसा कह कर एक बड़ी भूल कर दी। जब उन्हें इसका अहसास हुआ तो उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने सिर्फ एक मुहावरे का इस्तेमाल किया था और किसी को आहत करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं अपने द्वारा की गई टिप्पणी के लिए खेद व्यक्त करता हूं और अपने शब्दों को वापस लेता हूं। मेरे मन में मुलायम सिंह और लालू प्रसाद के लिए अत्यंत सम्मान है। किसी को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ठेस पहुंचाने का मेरा इरादा नहीं था। गडकरी के खेद व्यक्त करने के बाद मुलायम सिंह यादव तो कुछ नर्म पड़ गए थे मगर लालू कहां पीछे रहने वाले थे उन्हों ने कहा था गडकरी कान पकडकर माफी मांगे नहीं तो उनकी पार्टी जन-आंदोलन छेड़ेगी।

यह मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह ने ‘कुत्ता प्रकरण’ में कूदते हुए सपा से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को उनके बयान के लिए माफ करने की अपील के साथ कहा है कि वह भली-भांति जानते हैं कि देश की राजनीति में सचमुच कुत्ता कौन है। अमर ने अपने ब्लाग पर लिखा ”गडकरी के एक बयान पर काफी तूफान मचा हुआ है। बयान पर मचे तूफान के बाद गडकरी की ओर से खेद प्रकट कर देना मामले का अंत कर देने के लिए काफी था। समाजवादी पार्टी आज कल मुद्दा विहीन है, इसलिए चर्चा में बने रहने के लिए गडकरी के खेद प्रकट करने के बाद भी उन्हें कुत्ता कह डाला। ऐसे में सपा में और गडकरी में क्या स्तरीय अंतर रहा। मुझे भली-भांति पता चल गया है कि इस देश की राजनीति में सचमुच कुत्ता कौन है।

अब प्रश्न यह है कि क्या गडकरी, शरद यादव या दूसरे नेता अनजाने में ऐसा गलत कह जाते हैं या फिर यही उनकी असलियत है। सच्चाई यह है कि भारतीय राजनीति में सिर्फ गडकरी ही नहीं ऐसे बहुत से नेता हैं जो आए दिन ऐसे शब्दों का इस्तमाल करते रहते हैं जिन्हें एक सभ्य समाज में किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। मुलायम सिंह और लालू प्रसाद तो आए दिन ऐसा कुछ न कुछ बोलते हैं जिन्हें बहुत बुरा नही ंतो अच्छा भी नहीं कहा जा सकता।

सिर्फ लालू प्रसाद ही नहीं बल्कि ऐसे नेताओं की संख्या कम नहीं है जो आए दिन कुछ न कुछ ऐसी टिप्पणी जरूर करते हैं जिसे शालीन नहीं कहा जा सकता। गत वर्ष उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी और वरूण गांधी को अपने विवादास्पद बयानों के लिए सबसे ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ी थी। मायावती के खिलाफ टिप्पणी करके रीता ने अपने लिए मुसीबत बुलाई तो वरूण गांधी ने हिंदुत्व की तरफ बढ़ने वाले हाथ को तोड़ने की बात कहकर आफत मोल ले ली। गत वर्ष पंद्रह जुलाई को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने दुष्कर्म के एक मामले में मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करके बसपा कार्यकरताओं के गुस्से को दावत दे दी। लोकसभा चुनावों के दौरान पीलीभीत से भाजपा के उम्मीदवार वरूण गांधी भी विवादों में घिरे। उन्होंने कथित तौर पर कहा कि हिन्दुत्व की ओर बढ़ने वाला हाथ तोड़ दिया जाएगा। एक बार महिला आरक्षण्ा के संबंध में मुलायम ने कहा कि आरक्षण लागू हो जाने से बड़े बड़े घरों की लड़कियां राजनीति में आएंगी जिन्हें लड़के देख कर सिटी बजाएंगे। कुल मिलाकर नेताओं में किसी को यह मुंह नहीं है कि वह दूसरों को बुरा कहें जिसे जब अवसर मिलता है गाली बोल देते हैं और जब बात बिगड़ती है तो यह कह कर मामला शांत करने की कोशिश करते हैं कि हमारा मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं था। पहले जो काम अन्य नेता करते रहे हैं इस बार वह शरद यादव ने किया है। नए और युवा नेता जोश में कुछ गलत बोल जाऐ तो बात समझ में आती है मगर शरद यादव जैसा सीनियर नेता जब जनता को ही बीमार कह दे तो इस से देश में राजनीति के घटते स्तर का अंदाजा होता है।

शुक्रवार, अक्तूबर 29, 2010

लीव इन में रहने वाली महिला रखैल नहीं तो और क्या?


गत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने लीव इन में रह रही महिलाओं के संबंध में एक अहम फैसला देते हुये कहा की अगर कोई पुरूष रखैल रखता है , जिसको वो गुज़ारे का खर्च देता है और मुख्य तौर पर यौन रिश्तों के लिए या नौकरानी की तरह रखता है तो यह शादी जैसा रिश्ता नहीं है। इस फैसले के बाद बहुत से लोगों को रखैल शब्द पर आपत्ति है। प्रख्यात वकील और अडिशनल सॉलीसिटर जनरल इंदिरा जय सिंह ने लिव-इन रिश्तों में रह रही महिलाओं के लिए ' रखैल ' शब्द के इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति जताई है। उनका कहना है की फैसले में इस्तेमाल किया गया रखैल शब्द बेहद आपत्तिजनक है और इसे हटाए जाने की जरूरत है। जयसिंह ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट 21वीं सदी में किसी महिला के लिए ' रखैल ' शब्द का इस्तेमाल आखिर कैसे कर सकता है? क्या कोई महिला यह कह सकती है कि उसने एक पुरुष को रखा है? 
यह सही है की कोई महिला यह नहीं कहेगी की उसने पुरूष रखा हुआ है मगर इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता की जिस प्रकार पुरूष महिला को बिना शादी के साथ में रखते हैं उसी प्रकार महिलायें भी पुरूष को बिना शादी के अपने साथ रखती हैं। अब इस के बाद एक अहम सवाल यह पैदा हो गया है और इस पर बहस की ज़रूरत है की ऐसी महिलाओं के लिए रखैल शब्द का प्रयोग उचित कियून नहीं है। यह अलग बात है की कानून के मुताबिक कोई भी बालिग लिव इन में रह सकता है या रह सकती है। मगर क्या भारत जैसे देश में इस रिश्तों को सही माना जाएगा या सही माना जाना चाहिए। कोई भी धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें बिना शादी के महिला और पुरूष को एक पति पत्नी की तरह रहने और शारीरिक संबंध बनाने की इजाज़त देता है। इस के बावजूद यदि कोई ऐसा करता है तो उसे बुरी नज़र से कियून नहीं देखा जाए। ऐसा नहीं हैं रखैल शब्द सिर्फ महिलाओं के लिए ही है यदि कोई पुरूष किसी महिला के साथ बिना शादी के रह रहा है और शारीरिक संबंध बना रहा है तो उसके लिए भी यही शब्द इस्तेमाल होना चाहिए। यह कहना की 21 वीं सदी में किसी महिला के लिए रखैल शब्द का इस्तेमाल सही नहीं है बेकार की बात है। यह 21 वीं सदी है, देश तरक़्क़ी कर रहा है, महिलायें भी जीवन के विभिन्न मैदानों में आगे बढ़ रही हैं इसका मतलब यह नहीं है की वो बिना शादी के किसी पुरूष के साथ पति पत्नी की तरह रहें। ईमानदारी की बात यह है और सच्चाई भी इसी में है की जो कोई महिला या पुरूष इस तरह लीव इन में रहता है या रहती वो सिर्फ और सिर्फ ऐसा मज़े के लिए और जिम्मेदारियों से भागने के लिए करता है। इस प्रकार के रिश्तों में रहने वालों के लिए नैतिकता की बात करना बेमानी है। यह इंसान की फितरत है और इस लिए एक लड़का और लड़की में पियार मुमकिन है ऐसे में यदि उन दोनों को साथ रहना है और दोनों बालिग हैं तो फिर उनके लिए शादी एक बेहतरीन तरीका है। ऐसे लड़के या लड़कियां शादी जैसे पवित्र बंधन में बांधने से कियून भागते है। अगर कोई शादी से भागता है तो इसका मतलब यह है की शादी के बाद आने वाली जिम्मेदारियों से भाग रहा है। और जो लोग समाज से भागते हों , सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों से भागते हों ऐसे लोगों के साथ हमदर्दी किस बात की। एक आसान सी बात है जो हर किसी को समझना चाहिए की बिना शादी के शारीरिक संबंध बनाना ग़लत है और इसे ग़लत माना जाना चाहिए। जब बिना शादी के शारीरिक संबंध बनाने को ग़लत माना जाता है तो फिर लीव ईन में रहने और हर प्रकार के मज़े करने की जितनी भी निंदा की जाये कम है। जो लोग इस प्रकार के रिश्ता रखने वालों का साथ देते हैं, उनके साथ हमदर्दी रखते हैं और उनके हक़ की लड़ाई लड़ते हैं वो दरअसल भारत की संस्कृति के साथ मज़ाक करते हैं। मेरी जितनी समझ है उस से मुझे लगता है की लीव इन वेस्टर्न मुल्कों में फैली एक बुराई है जो अब बड़ी तेज़ी से भारत में भी फैलती जा रही है यदि ऐसे रिश्तों की निंदा नहीं की गयी तो धीरे धीरे शादी का सिस्टम ही खत्म हो जाएगा और पार्टनर बादल बदल कर मज़ा बदलने का रिवाज भी बढ्ने लगेगा.

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

खेल के बाद अब दूसरा खेल शुरू


पहले समय पर स्टेडियम तैयार नहीं हुये, फिर जो स्टेडियम तैयार हुये उन में कई कमियाँ रह गईं, किसी के छत से पानी टपका तो कहीं से साँप निकला, कहीं पुल टूट गया तो कहीं प्रैक्टिस के दौरान खिलाड़ी गिर कर ज़ख्मी हो गए। इन सब से बड़ी बात यह हुई कि जैसे-जैसे राष्ट्रमंडल खेलों के दिन नजदीक आते गए वैसे वैसे नए नए घोटाले भी सामने आने लगे। रही सही कसर दिल्ली में फैले डेंगू ने पूरी कर दी। इन सब के बाद हर कोई बस यही कहने लगा कि भारत में राष्ट्रमंडल खेल सही ढंग से नहीं हो पाएंगे और भारत की नाक कट जाएगी। मगर राष्ट्रमंडल खेलों का शानदार उद्घाटन हुआ और फिर शानदार समापन भी। इस दौरान सभी खेल शानदार तरीके से आयोजित हुये। हर कोई जो सुरेश कलमाड़ी और उनकी टीम के पीछे पड़ा हुआ था उसने भी कहा वाह! ऑस्ट्रेलिया जैसा देश जो पहले तो इस गेम में शरीक होने के बहाने बनाता रहा फिर वहाँ के एक पत्रकार ने स्टिंग ओपराशन करके भारत और दिल्ली को बदनाम करने की कोशिश की उसी ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी और मीडिया अब कलमाड़ी और उनकी टीम की तारीफ करते नहीं थक रहें हैं। ईमानदारी से देखा जाए तो राशत्रमंडल खेल जीतने सफल रहे उतने की किसी ने उम्मीद नहीं की थी।
कुल मिलकर खुदा का शुक्र है कि खेल बड़ी कामयाबी के साथ सम्पन्न हो गए। मगर अब इस खेल के समापन के बाद दूसरा खेल शुरू हो गया है। और यह खेल है एक दूसरे को बदनाम करने का खेल। गेम के तुरंत बाद पहले तो इस की सफलता का क्रेडिट लेने का खेल शुरू हुआ। आयोजन समिति के सुरेश कलमाड़ी ने कहा कि इसकी सफलता का सेहरा मेरे सर जाता है तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि यह कलमाड़ी के बस की बात नहीं थी, यह कमाल तो मैंने कर दिखाया। मगर जब मीडिया और आम जनता ने यह कहा कि ठीक है खेल तो सफल हो ही गए, अब ज़रा खेल के नाम पर किए गए घोटालों की जांच हो जाए तो फिर एक नया खेल शुरू हो गया और यह खेल है एक दूसरे को बदनाम करने का खेल। एक तरफ जहां दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इन सारी अनियमितताओं के लिए कलमाड़ी और उनके लोगों को जिम्मेदार बता रहीं है वहीं दिल्ली सरकार की बेचैनी को देख कर लगता है कि आने वाला दिन उसके लिए भी अच्छा नहीं रहेगा। कलमाड़ी ने भी कहा है कि पहले दिल्ली सरकार अपनी योजनाओं में फैले भ्रष्टाचार की तरफ ध्‍यान दे फिर हमें बदनाम करने का सोचे। खुद शीला को भी लगता है कि दिल्ली सरकार को परेशानी का सामना करना पर सकता है इसलिए कैबिनेट की बैठक में शीला ने अपने मंत्रियों से कहा है कि राष्ट्रमंडल खेल परियाजनाओं से संबंधित जो भी काग़ज़ात हैं उसे संभाल कर रखें। शीला और कलमाड़ी के बीच शुरू हुई जंग से लगता है कि कहीं न कहीं दोनों को दाल में कुछ काला होने का डर साता रहा है। इसी कारण दोनों ने खुद को बचाने के लिए एक दूसरे को घेरना शुरू कर दिया है। इन दोनों को समझना चाहिए कि अगर आप इन खेलों की सफलता का सेहरा खुद के सर लेना चाह रहें हैं तो इस में यदि कोई गड़बड़ी हुई है तो इसकी ज़िम्मेदारी भी आपको ही लेनी होगी। वो तो कुछ दिनों में पता ही चल जाएगा कि इन सारे घपलों और घोटालों का असली जिम्मेदार कौन है मगर इस पूरे मामले में काँग्रेस पार्टी की भी किरकिरी हो रही है। और इसे मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी अच्छी तरह महसूस कर रहें है। यही कारण है कि सरकार के अलावा काँग्रेस पार्टी की तरफ से भी कलमाड़ी और शील दोनों से कहा गया है कि दोनों अपनी अपनी ज़बान बंद रखें और जांच में सहयोग करें ताकि काँग्रेस पार्टी की कोई बदनामी नहीं हो। मगर चूंकि खेल के बाद एक दूसरा खेल शुरू हो गया है और इस का लाभ हर पार्टी उठाना चाहती है तो भला भारतीय जनता पार्टी इस में कैसे पीछे रहती। भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी तो इन सारे घपलों और घोटालों के लिए परधानमंत्री दफ्तर को ही जिम्मेदार मानते हैं। गडकरी के अनुसार सारे भ्रष्टाचार के लिए अकेले आयोजन समिति नहीं बल्कि दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार भी ज़िम्मेदार है। कुल मिलकर पहले तो खेल के नाम पर अंदर अंदर दूसरा खेल भी होता रहा और अब जब की भ्रष्टाचार की जांच शुरू हुई है तो अब एक अलग ही खेल शुरू हो गया है और और वो है एक दूसरे को बदनाम कर खुद को बचाने का खेल और इस पूरे मामले का राजनीतिक लाभ उठाने का खेल। अब देखना यह है कि इस घटिया खेल में जीत किसकी होती है और हार किसकी होती है?

बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

बिग बॉस की ऐसी की तैसी


 
बिग बॉस का चौथा सीजन धमाकेदार तरीके से शुरू हो चुका है। जैसा की समझा जा रहा था और यही इसमें ज़रूरी भी है बिग बॉस शुरू होते ही घर के अंदर धूम धमाका शुरू हो चुका है। एक दूसरे के भेद खुलने लगे हैं। नकली आँसू के गिरने का सिलसिला शुरू हो चुका है। और गली गलोज भी जारी है। इस बार सबसे अलग बात यह रही की पहले मेहमान आपस में एक दूसरे को गाली देते थे इस बार बंटी नाम के एक मेहमान ने किसी दूसरे मेहमान को नहीं बल्कि बिग बॉस को ही गाली दे दिया। बंटी ने बिग बॉस को एक दो नहीं बल्कि पचास बार गाली दी। यही कारण से उन्हें घर से बाहर भी कर दिया गया। यह वही बंटी हैं जो पहले बहुत मशहूर चोर थे अब जेल से बाहर आयें हैं तो मीडिया उन्हें हेरो बना कर पेश कर रही है और वो खुद भी अपने को किसी हेरो से कम नहीं समझ रहे हैं। बहुत से लोगों को लगता होगा की बंटी ने जो किया वो ग़लत है ऐसे लोगों को शायद यह पता नहीं की चैनल के लिए और इस प्रोग्राम् की सफलता के लिए जो चीज़ सब से ज़रूरी है वो बंटी ने ही किया। बिग बॉस जैसे प्रोग्राम्म का मतलब ही है की अंदर लोग एक दूसरे की बुराई करें एक दूसरे की मान बहन करें और जितना मुमकिन हो नकली आँसू बहाएँ। इस बार जो भी मेहमान बिग बॉस के घर में है उनमें कोई बड़ा नाम नहीं है। फिर जनता इतनी बेवकूफ तो है नहीं जो उन्हें देखना पसंद करेगी। हाँ इन्हें पसंद तब किया जाएगा जब इनमें मार पीट हो। वो एक दूसरे को गाली दें लड़के लड़कियों के बीच प्यार भी शुरू हो तभी तो जनता को अच्छा लगेगा। इस बार जो मेहमान आए हैं उनमें अधिकतर का बॅक ग्राउंड विवादित रहा है। जनता को वीणा मालिक को देखने में दिलचस्पी नहीं है बल्कि जनता तो चाहती है की वो पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहम्मद आसिफ से अपनी प्रेम कहानी को जनता को बताए। अश्मित पटेल से लोग यह जानना चाहते है की कैसे उनका और रिया सेन का एम एम एस बना था। कुल मिला कर बिग बॉस जैसा प्रोग्राम गाली ग्लोज के बिना बेकार है। जनता में सर्वे करा कर देख लिया जाये बंटी ने जो बिग बॉस को गाली दी उसे पसंद किया गया होगा।
सच्चाई यह है की भारतिए मीडिया अब बहुत आगे निकाल चुका है। अब यहाँ भी शर्म नाम की कोई चीज़ नहीं रही। इस बार तो लड़के लड़की दोनों को बिग बॉस के एक ही कमरे में सुलाया जा रहा है। पहले दिन राखी सावंत का वो वाक्य याद कीजिये जब उसने सलमान खान से कहा था की इस बार लड़के लड़की साथ सोएँगे बड़ा मज़ा आएगा। जी हाँ इस बार जैसे जैसे मेहमान है तो तैयार रहिए बहुत अच्छी अच्छी चीज़ें देखने को मिलेंगी। हो सकता है दो मेहमान आने वाले दिनों में एक दूसरे को कीसस करते हुये भी नज़र आ जाएँ। ताज्जुब की बात यह है की भारत जैसे देश में इसे पसंद किया जा रहा है और दर्शक इसे खूब मज़े ले के देख रहें हैं। अब तो बिग बॉस की माँ बहन हो ही चुकी है आगे आगे देखिये होता है क्या.

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

डील के बाद बाबरी मस्जिद हिंदुओं को सौंप दी जाएगी !


इन दिनों राज्यसभा के सांसद मोहम्मद अदीब और उर्दू अखबार सहाफ़त के रिश्ते कुछ ज्यादा ही खराब हो गए लगते हैं। वैसे तो इन दोनों के रिश्ते पहले भी अच्छे नहीं रहें हैं, मगर इस बार रिश्ते और अधिक खराब होने की वजह सहाफ़त में प्रकाशित एक खबर है। जिसमें कहा गया है कि मोहम्मद अदीब उन कुछ मुसलमान नेताओं में शामिल हैं, जो अंदर-अंदर एक प्लान तैयार कर रहें हैं कि अगर बाबरी मस्जिद का फैसला मुसलमानों के फ़ेवर में आ जाये तो भी विवादित ज़मीन को देश में राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदुओं को दे दी जाये। कुछ इस तरह कि लीजिये हम खुशी खुशी यह ज़मीन आपको दे रहें हैं आप वहाँ मंदिर बना लीजिये।

सहाफ़त में 6 सितम्बर को पहले पेज पर इस संबंध में जो खबर छपी है, उसकी सुर्खी कुछ ऐसी है- सोनिया के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल को गुमराह करने की साजिशबाबरी मस्जिद की ज़मीन को राम मंदिर के लिए देने की तैयारी तेज़ : सलमाम खुर्शीद और मोहम्मद अदीब पेश : शंकराचार्य और उलेमा संपर्क में। अंदर खबर में जो लिखा है उसके अनुसार सलमान खुर्शीद और मोहम्मद अदीब की अगुआई में एक ऐसा आंदोलन चलाया जा रहा है, जिसके तहत बाबरी मस्जिद की जगह को राम मंदिर के लिए देने पर उलेमा से संपर्क किया जा रहा है। खबर के अनुसार एक प्रमुख सवाल के उत्तर में अदीब ने कहा कि जहां तक बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर को देने का सवाल है, तो इसके लिए मुस्लिम विद्वान, उलेमा और धर्माचार्यों से बात हो रही है।

खबर के छापने के लगभग एक सप्ताह बाद अदीब ने सहाफ़त को नोटिस भेजा है। कारवाई के लिए पुलिस से शिकायत की है और हरजाना भी मांगा हैं। मोहम्मद अदीब ने सहाफ़त की खबर को ग़लत बताते हुए 14 सितम्बर को जो खबर छपवाई है, उसके अनुसार- गत दिनों बाबरी मस्जिद के सिलसिले में मेरा जो बयान सहाफ़त में प्रकाशित हुआ, वो ग़लत और बेबुनयाद है। उनका यह भी कहना है कि इस इशू पर अखबार के किसी रिपोर्टर ने उनसे बात ही नहीं की। अदीब साहब ने यह भी लिखा है कि सहाफ़त अखबार पिछले एक साल से उनके पीछे पड़ा हुआ है और कई बार उन से संबंधित झूठी खबरें प्रकाशित करता रहा है। अदीब साहब के अनुसार अब वो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अखबार के खिलाफ कार्रवाई करें।
इस खबर के एक दिन बाद सहाफ़त ने पहले पेज पर एक खबर प्रकाशित की। जिसकी सुर्खी है- मोहम्मद अदीब के आरोप पूरी तरह से बे-बुनियाद। अखबार ने खबर में लिखा है कि अदीब से संबंधित जो खबर हमने प्रकाशित की थी वो पूरी तरह से सही है। रही बात अदीब साहब की तो उनको संसद तक पहुंचाने में सहाफ़त ने बड़ी मदद की, इसके बावजूद पता नहीं क्यूँ वो एक साल से अखबार को बदनाम करने में लगे हैं। जहां तक खबर का संबंध है तो बाबरी मस्जिद के सिलसिले में इस तरह की गुपचुप तैयारियों की खबर हिन्दी अखबार नई दुनिया में 27 अगस्त को और लखनऊ के प्रतिदिन में भी छपी है।

अब सवाल यह है कि क्या सही में ऐसी कोई तैयारी चल रही है कि बाबरी मस्जिद का फैसला मुसलमानों के फ़ेवर में आ जाये तो भी विवादित ज़मीन राम मंदिर के लिए हिंदुओं को दे दी जाये। अगर ऐसी कोई तैयारी हो रही है तो फिर इसकी इजाज़त इन दो चार मुसलमानों को किसने दी। क्या हिंदुस्तान के दस-बीस करोड़ मुसलमानों की ज़िम्मेदारी इन्हीं दो-चार मुसलमानों पर है। अगर भारत के लगभग 99.9 प्रतिशत मुसलमानों को इसकी जानकारी नहीं है तो क्या यह कुछ गिने-चुने मुसलमानों का पूरे भारत के मुसलमानों के साथ धोखा नहीं हैं। इसकी भी गारंटी कौन देगा कि यह सब आपसी एकता के लिए हो रहा है या इस सिलसिले में कोई बड़ी डील हो रही है। हर सच्चा मुसलमान और सच्चा भारतीय चाहता है कि देश में एकता बनी रहे और दोनों धर्मों के लोग फालतू के किसी विवाद में न पड़ें। मगर क्या आम मुसलमानों को बताए बिना इस प्रकार की कोई डील करना उचित है। जहां तक अदीब साहब का सवाल है तो अगर उन्हें लगा कि सहाफ़त ने उनसे संबंधित ग़लत खबर छपी है तो उन्होंने इस खबर को ग़लत बताने में इतनी देर क्यूँ की। उन्हें चाहिए की वो इस सिलसिले में पूरे भारत के मुसलमानों को सच्चाई से अवगत कराएं।

रविवार, सितंबर 05, 2010

नाक कटने का डर


जैसे जैसे कॉमन वेल्थ गेम के दिन करीब आते जा रहे हैं वैसे वैसे दिल कि धड़कन यह सोच कर बढती जा रही है कि कहीं सचमुच इसका बेडा ग़र्क न हो जाए और कहीं दुनिया भर में हमारी नाक कट न जाए। आम जनता तो कह ही रही थी अब खिलाडी भी कहने लगे हैं कि हमारे देश को इतने बड़े खेल मेले के आयोजन कि जिम्मदारी नहीं लेनी चाहिए थी। एक तो इसकी तैय्यारी देर से शुरू हुई। दुसरे इसमें बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ और अब रही सही कसार दिल्ली में फैले डेंगू ने पूरी कर दी है। भारत में होने वाली आतंकवादी घटनाओं से चिंतित विदेशी खिलाडी पहले ही भारत में आने से आना कानी करते रहे हैं अब कई खिलाडिओं ने डेंगू कि वजह से दिल्ली नहीं आने का फैसला किया है।
जहाँ तक तैय्यारी का सवाल है तो हर प्रकार कि तैय्यारी में देरी हुई। स्टेडियम देर से तैयार हुए। जिसे तैयार बता कर उसका उदघाटनकर दिया गया उसमें अभी भी कई कमियाँ हैं। जब दिल्ली में ज़ोरदार बारिश होती है तो सड़कों कि हालत तो खराब होती ही है स्टेडियम कि छतें भी टपकने लगती हैं। ताज्जुब कि बात तो यह है कि उन स्टेडियम कि छतें टपक रही हैं जिन्हें वर्ल्ड क्लास का बताया गया है। मीडिया को नसीहत कि जा रही है कि कृपा करके बदनाम करने वाली रिपोर्टिंग न करें मगर जब कमी है तो उसे लिखा कियूं नहीं जाए। झूठी शान कियूं दिखाई जाए। बहुत से लोग तो यह भी कह रहे हैं कि सुरेश कलमाड़ी एंड कंपनी का जो घोटाला सामने आ रहा है फिलहाल उस पर ध्यान नहीं दिया पहले खेल का आयोजन सफलता से होने दिया जाए फिर बात मरीं देखा जायेगा। किया यह संभव है कि कलमाड़ी और उनके चाहीतों को विभिन्न घोटालों के लिए गेम के बाद सजा मिलेगी। आई पी एल के कमिश्नर ललित मोदी पर जब आरोप लगे तो उन्हें फ़ौरन उनके पद से हटा दिया गया और अब उन्हें सजा दिलान्ने कि भी कोशिश हो रही है मगर पता नहीं कियों कलमाड़ी को बचाने वालों कि एक लम्बी लाइन लगी हुई है। मनमोहन सिंह, शीला दीक्षित , एम् एस गिल और कई दुसरे लोगों कि तरह हर भारतीय यही चाहता है कि इन खेलों का आयोजन सही तरह से हो जाये और भारत कि नाक नहीं कटे मगर अब तक जो कुछ देखने में आ रहा है उस से यही लग रहा है कि नाक कटने का डर बना हुआ है।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

सरकार के वीरुध एकजुट हुए उर्दू समाचार पत्र

हिन्दी और अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों की तरह उर्दू के समाचार पत्रों में भी आपस में काफी मुकाबला देखने को मिलता है। अंतर सिर्फ इतना है की एक ओर जहां हिन्दी और अंग्रेज़ी के समाचारपत्र खबरों के लिए मुकाबला करते हैं वहीं उर्दू के अखबार सिर्फ इस बात के लिए एक दूसरे से मुकाबला करते हैं की अधिक से अधिक मंत्रियों से कैसे जान पहचान बनाई जाए और कैसे ड़ी ए वी पी में बड़े अधिकारियों से मिलकर अधिक से अधिक विज्ञापन हासिल किया जाए। उर्दू अखबारों में यह भी एक चलन है की यहाँ हर अखबार बड़े बड़े मुस्लिम विद्दुयानों को अपने करीब रखने की कोशिश करता है। मगर इस बार उर्दू अखबार वालों को एक ऐसी परीशनी का सामना है की सब के सब सरकार के वीरुध एकजुट नज़र आ रहें हैं। हुआ यह है की पिछले कुछ महीनों से उर्दू अखबार को ड़ी ए वी पी के विज्ञापन बहुत कम मिल रहें हैं। और जहां तक उर्दू अखबारों का सवाल है तो उर्दू अखबार की आम्दनी का जरिया बहुत हद तक ड़ी ए वी पी के विज्ञापन ही होते हैं। मगर ऐसा देखा जा रहा है की यू पी ए सरकार पता नहीं क्यूँ उर्दू वालों को विज्ञापन नहीं के बराबर दे है। हद तो यह है की जो विज्ञापन सिर्फ उर्दू वालों के लिए होते हैं वो भी इंग्लिश अखबारों में छपते हैं। अब चूंकि इंग्लिश या हिन्दी अखबारों की तरह उर्दू मैं न तो ब्लाक मेल करने का चलन है और न ही इन में प्राइवेट विज्ञापन ज्यादाह होते हैं इस लिए उर्दू अखबार के बचे रहने के लिए ड़ी ए वी पी विज्ञापन ज़रूरी है। मगर यू पी ए सरकार उर्दू अखबार के साथ सौतेला रवैया अपना रही है। सरकार की इसी बेरुखी से नाराज़ होकर उर्दू अखबार के संपादकों और मालिकों ने प्रधान मंत्री और दूसरे मंत्रियों से मिलने का सिलसिला शुरू कर दिया है। गत दिनों इसी सिलसिले में हिंदुस्तान एक्सप्रेस के परवेज़ सुहाइब अहमद, हमारा समाज के खालिद अनवर, सहाफ़त के हसन शुजा और अखबार मशरिक़ के वसीमूल हक़ ने मौलाना अर्शद मद्नी और सांसद बदरुद्दीन अजमल के साथ प्रधान मंत्री से मुलाकात की। प्रधान मंत्री हालांकि इस टीम को आश्वासन दिया की वो उर्दू अखबारों की समस्याओं पर ग़ौर करेंगे। उनहों ने अपने प्रैस सलाहकार से भी कहा की इन अखबारों के समस्याओं को हल करने की कोशिश करें। इस पर अमल कब होता है यह तो बाद में पता चलेगा।
चूंकि सरकारी विज्ञापन नहीं मिलना एक बड़ी समस्या है इस लिए इस सिलसिले में उर्दू अखबार के संपादकों ने मंत्रियों और ऐसे लोगों से मिलना शुरू कर दीया है जिनसे कोई लाभ हो सकता है। वैसे तो उर्दू अखबार की मदद के लिए मौलना लोग और कई सांसद भी सामने आ गए हैं मगर कई लोग ऐसे भी हैं जिंका कहना है की अखबार वाले क्या अपनी समस्या खुद हल नहीं कर सकते जो उन्हें मौलाना लोगों की मदद लेनी पड रही है। इस सिलसिले में जिन लोगों ने खुलकर उर्दू वालों की मदद करने का वादा किया है और कर भी रहें हैं उनमें सांसद मोहम्मद अदीब, मौलाना अहमद बुखारी, मौलाना अर्शद मदनी और मौलाना वाली रहमनी का नाम उललेखनिए है। इन सभी का यही कहना है और यह सही भी कह रहें हैं की सरकार उर्दू अखबार के साथ नाइंसाफी कर रही है। गत दिनों दिल्ली में एक प्रोग्राम के दौरान सांसद मोहम्मद अदीब ने कहा की उर्दू वालों के साथ सब से बड़ा मसला यह है की उनका कोई संगठन नहीं है जो उनके लिए आवाज़ बुलंद कर सके। इसी प्रोग्राम में कोलकाता के मशहूर अखबार आज़ाद हिन्द के संपादक और सांसद सईद मलीहाबादि ने कहा की हर अखबार अकेले अपनी समस्या हल नहीं कर सकता। इस के लिए ज़रूरी है की संगठन बनाया जाए और फिर किसी समस्या के हल के लिए मिलकर कोशिश की जाये. कुल मिला कर पहली बार ऐसा देखने में आ रहा है की उर्दू के सभी अखबार वाले एक प्लातेफ़ोर्म पर आ गए हैं और सब मिलकर इस समस्या का हल निकालने की कोशिश में लगे हैं। मगर बड़े अफसोस की बात यह है की राजनीती यहाँ भी हो रही है। एक ओर जहां हर कोई इस अवसर का लाभ उठा कर अपनी अधिक से अधिक पहुँच नेताओं तक बनाने की कोशिश में लगा है वहीं उर्दू के एक बड़े अखबार राष्ट्रीय सहारा के संपादक अज़ीज़ बर्नी ने खुद को इस पूरे मामले से अलग रखा हुआ है। जिस पार्कर चुनाओ के समय मुसलमानों का वोट बाँट जाता है ठीक उसी तरह यहाँ भी थोड़ी बहुत राजनीती हो रही है और उर्दू वाले एक दूसरे को काटने में लगे हुये हैं। इस अवसर पर यदि सबने मिल कर काम नहीं किया तो इसका एक बड़ा नुकसान आने वाले दिनों में सब को होगा। पता नहीं यह बात उर्दू अखबारों के संपादकों या मालिकों को क्यूँ समझ में नहीं आ रही है। सुनने में यह भी आ रहा है की सरकार को कुछ उर्दू के संपादकों ने चार पाँच नाम दे कर यह कहा है की यही चार पाँच अखबार उर्दू के दिल्ली से निकलते हैं बाक़ी नहीं। इस के बाद से उन अखबारों में नाराज़गी पायी जा रही है जिसका नाम इस लिस्ट में नहीं है।

शुक्रवार, जुलाई 09, 2010

नितीश कुमार का रिपोर्ट कार्ड और असलियत

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी सरकार के पांचवे वर्ष में राज्य सरकार के क्रियाकलापों को लेकर एक रिपोर्ट कार्ड जारी किया है। जिसमें उन्हीं ने एक तरफ जहाँ यह बताने की कोशिश की है हमने पिछले चार सालों में क्या क्या कमाल क्या है वहीं उन्हों ने उर्दू और सिंस्कृत के टीचरों की नियुक्ति की बात भी काही है। जहाँ तक उनके 112 पृष्ठ के रिपोर्ट कार्ड का सवाल है तो वो यदि यह रिपोर्ट कार्ड नहीं भी जारी करते तो जनता को पता है की वो कुछ अच्छा काम कर रहें हैं मगर सच्चाई यह है की रिपोर्ट कार्ड की पूरी बात सही नहीं है। इस में शक नहीं की नितीश के आने के बाद बिहार की हालत बेहतर हुई है मगर इसका फाइदा सिर्फ उन्हीं लोगों को मिल रहा है जो तेज़ और चालाक हैं और जो नेताओं की चमचागीरी में लगे रहते हैं। इसकी कई मिसालें दी जा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर बिहार में ज्यादाह तर गाँव में यह देखा गया है की बी पी एल में अमीरों का नाम है और ग़रीब बेचारे इसका लाभ नहीं ले पा रहें हैं। उसी प्रकार इन्दिरा आवास योजना का लाभ जरूरतमंदों को नहीं मिल रहा है। इन्दिरा आवास के तहत जितनी रकम टाई है उस से 5-10 हज़ार कम रकम मिलती है। बकी की रकम कई लोग रिश्वत के तौर पर लेते हैं। इनमें गाँव के छोटे मोटे दलाल मुखिया और ब्लॉक विकास अधिकारी भी शामिल रहता है.सिक्षा मित्रों को तनख्वाह तो मिल रही है मगर वो पाबंदी से स्कूल नहीं जाते और वो बच्चों को पढ़ाने के योग्य भी नहीं हैं। सिक्षा मित्रों की हालत यह है की उन्हें अपना पैसा लेने के लिए मुखिया को रिश्वत देनी पड़ती है। मुखिया के खिलाफ कोई सिक्षा मित्रा इस लिए नहीं बोलता की उसे पता है की मैं भी तो दूसरे का हक मार कर बे इमानी से टीचर बना हूँ। स्कूलों में चार्ट तो लगा है की फलां दिन फलां खाना बनेगा मगर कई कई दिन तक खाना नहीं बनाता। कुल मिलकर नितीश जी बहुत कुछ बेहतर करने की कोशिश की है मगर अफसरों की बे इमानी से ज़रूरतमंद इसका लाभ नहीं उठा पा रहें हैं। 
जहाँ तक 27 हजार उर्दू शिक्षक, की नियुक्ति का सवाल है तो यह तो नितीश जी ने चुनाओ को देखकर किया है.चुनाओ के कारण ही उन्हों ने कहा की वह चाहते हैं कि प्रत्येक विद्यालय में एक उर्दू शिक्षक हो। कुल मिलकर नितीश काम अच्छा कहा जा सकता है मगर इस से इंकार नहीं किया जा सकता की उनकी जो योजनाएं हैं उसका लाभ सही लोग नहीं उठा पा रहें हैं। जहाँ तक अफसरों की बे इमानी का सवाल है तो वो अब भी उतने ही बे ईमान हैं जीतने लालू प्रसाद के ज़माने में थे.

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

गाजर मूली की तरह कट रहे हैं हमारे फौजी

माओवादी हमारे जवानों को मूली गाजर की तरह काट रहें है। हर आने वाले दिन देश के किसी न किसी हिस्से में हमारे जवान माओवादी या नक्सल का शिकार हो रहें हैं। पहले ऐसा होता था की इन हमलों में आम जनता मारी जाती थी मगर अब तो ऐसा लगता है की माओवादीओन ने खास तौर पर फौज को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। राजनेता मारे गए फौजियों के घर वालों को वक्ती तौर पर दिलासा तो दे देते हैं मगर उनके ज़ख़्मों को भर्ना आसान नहीं है। पता नहीं क्यों सरकार माओवाडीओन के प्रति नर्म रवैया अपनाती है। ऐसा शायद इस लिए है की माओवाडीओन के हमले में आम तौर पर या तो जनता या फिर फौजी मारे जाते हैं कोई नेता नहीं मारा जाता। अगर माओवादी नेता को निशाना बना शोरू कर दें तो शायद ऐसा नहीं होगा। सरकार को चाहिए की वह माओवाडीओन की गतिविधियों पर तुरंत सख्त कारवाई करे ताकि आइंदा से न कोई आम आदमी इन हमलों का शिकार हो और न ही फौजियों को अपनी जानें गंवानी पड़ें। ज़रा ग़ौर कीजिये जो फौजी हरी रक्षा के लिए दिन रात लगे रहते हैं उनकी जान बड़ी आसानी से चली जाती है.

मंगलवार, जून 29, 2010

साइना नेहवाल को बधाई

साइना नेहवाल को बधाई
हिंदुस्तानी बैडमिंटन स्टार साइना नेहवाल की खिताबी हैट ट्रैक पर उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। आज जो सफलता साइना को मिल रही है वही सफलता कभी सानिया मिर्ज़ा को मिली थी मगर धीरे धीरे सानिया की सफलता का ग्राफ घटता गया। साइना ने तो सानिया से ज्यादाह कमाल किया है। साइना दो नंबर पर पहुँच चुकी हैं। ऐसी आशा है की वो नंबर एक पर भी पहुँच जाएँ मगर इसे वो बरकरार कब तक रखेंगी यह अहम सवाल है। साइना को चाहिए की वो ग्लैमर से बचें नहीं तो उनकी हालत भी सानिया जैसी ही हो जाएगी.

रविवार, मई 30, 2010

सुपर ३० का धमाका


आनंद कुमार की निगरानी में सुपर ३० ने लगातार तीसरे साल कमाल किया है। इस बार भी उसके सभी ३० लड़के आई आई टी के लिए सेलेक्ट हुए । इस शानदार आनंद कुमार और उनकी टीम को जितनी भी मुबारकबाद दी जाये कम है। कमाल कि बात यह है कि यह सभी लड़के ग़रीब घरों के होते है। इनसे कोई फीस भी नहीं ली जाती। आनंद कुमार का सुपर ३० उन सभी कोचिंग संस्थाओं के लिए मिसाल है जो कोचिंग के नाम पर बच्चों को लूटते हैं और समाचार पत्रों में बड़े बड़े विज्ञापन दे कर उन्हें ठगते हैं। आनंद कुमार का तो यह भी कमाल है कि वोह किसी से पैसा नहीं लेते। ऐसे लोग अगर देश में दस बीस हो जायें तो पूरे देश का भला हो जाये। ऐसी कामयाबी के लिए सब से ज़रूरी है इमानदारी जो कि आनंद कुमार में कूट कूट कर भरी हुई है। उनका नाम तो अब विदेशों में भी हो रहा है। ऐसे में उन पर पैसों कि बरसात हो सकती है मगर इस के बावजूद वोह किसी से पैसा लेना नहीं चाहते और ग़रीब बच्चों की मदद में लगे रहना चाहते हैं। आनंद और उनकी टीम को एक बार फिर बहुत बहुत मुबारकबाद। आशा है वोह यह कारनामा आगे भी अंजाम देते रहेंगे।

बुधवार, मई 19, 2010

बिगड़े नवावों पर करवाई ज़रूरी

एक तरफ तो भारतीय क्रिकेट टीम को इंडीज़ में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा वहीँ दूसरी भारत के कुछ खिलाडी नाच गाने में लगे रहे। सच्चाई यह है कि कुछ खिलाडिओं ने खुद को देश से ऊपर समझना शुरू कर दिया है। वोह यह भूल जाते हैं कि वोह देश के लिए खेल कर कोई अहसान नहीं कर रहे है बल्कि देश उन्हें खेलने का अवसर देकर उन पर अहसान कर रहा है। हालाँकि बी सी सी आई ने छः बिगड़े खिलाडिओं को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है मगर ज़रूरी है कि इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई कि जाए। इन्हें इसका अहसास करना ज़रूरी है कि तुम्हारे अलावः भी देश में बहुत से ऐसे खिलाडी हैं जो अवसर मिलने पर देश के लिए बेहतर खेल पेश कर सकते हैं। जिन बड़े खिलाडिओं का खेल सही नहीं था उसे सब से पहले तो टीम से बहार किया जाये और जो पब में झगडा में शामिल थे उनपर कार्रवाई भी कि जाए.

गुरुवार, फ़रवरी 04, 2010

कानून से ऊपर हैं यह लोग


फिल्म स्टार शाहरुख़ खान के एक बयां पर बाल ठाकरे और उनके लोग जो हंगामा कर रहे हैं उसे किसी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। चूँकि बाल ठाकरे रहज ठाकरे या फिर उद्धव ठाकरे जैसे लोगों के विरुद्ध कोई करवाई नहीं होती इस लिए वोह आये दिन देश के दुसरे लोगों पर अपनी मर्ज़ी थोपते रहते है । पाकिस्तानी खिलाडिओं के बारे मैं शाहरुख़ ने जो कुछ भी कहा है वही सोच अधिकतर लोगोंम की है । जब पाकिस्तानी खिलाडी आई पी एल के लिए नहीं चुने गए तो भारत के लगभग सभी खेल पत्रकारों को इस पर आश्चर्ज हुआ था और सबने यही लिखा था कि पाकिस्तानी खिलाडिओं को ज़रूर लेना चाहिए था। कई समाचार पत्रों ने तो इस पर सम्पदाकिये भी लिखा था। हर सच्चा इंसान यही कहेगा कि यदि कोई देश ग़लती कर रहा है या फिर उस देश के कुछ लोग भारत के विरूद्ध हैं तो फिर उसकी सजा उस खिलाडी को क्यों मिले जिसकी कोई ग़लती नहीं है।
सच्चाई यह है कि बालासाहब ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोगों को बदमाशी करनी होती है और वोह उसके लिए आये दिन कोई न कोई बहना तलाशते रहते हैं। उन्हें अमिताभ बच्चन जैसे लोगों से भी ताक़त मिलती है जो इतने बड़े स्टार होने के बावजूद ठाकरे के घर जा कर उन्हें फिल्म दिखाते हैं। जो लोग आये दिन मार पीट कि राजनीती करते हैं । मुंबई से बहार के लोगों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं उनसे अमिताभ का ऐसा प्रेम दर्शाता है कि वोह डर गए हैं और इसी वजह से शाहरुख़ जैसे बड़े स्टार का साथ देने के बजाये ठाकरे का साथ दे रहे हैं। ठाकरे जैसे लोगों को इतनी छूट देना उचित नहीं हैं। यह लोग धीरे धीरे देश के लिए दर्दे सर बनते जा रहे हैं। यदि उनके खिलाफ करवाई नहीं हुई तो आने वाले दिन में इनकी जो हरकत होगी उसे रोक पाना मुश्किल हो जायेगा।

मंगलवार, जनवरी 12, 2010

राजनेता को जनता की चिंता नहीं

गत सप्ताह दो ऐसी घटनाएं हुईं जिस से यह आसानी से अंदाज़ा लग जाता है कि नेताओं को जनता कि कोई चिंता नहीं है। वह राजनीती में सिर्फ और सिर्फ अपना भला करने के लिए आते हैं। पहली घटना दक्षिण भारत कि है वहां एक पुलिस वाला बम का शिकार हो कर तड़प तड़प कर सड़क पर मरता रहा मगर वहां से गुजरने वाले नेताओं ने उसकी चिंता नहीं की और उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। बाद में इस पुलिस वाले की मौत हो गयी। ज्ञात रहे कि यह वह पुलिस वाला था जो चन्दन तस्कर वीरप्पन को मारने वाली टीम का हिस्सा था। जब नेता ने एक बड़े पुलिस वाले कि सुध लेने कि कोशिश नहीं कि तो फिर एक आम जनता यह कैसे आशा कर सकती है कि जिस व्यक्ति को उस ने अपना कीमती वोट देकर दिलाया है वह परीशानी में आपका साथ देगा। ऐसे लोग आपका साथ कभी नहीं दे सकते।
उसी तरह इन दिनों महंगाई ने जनता का जीना हराम किया हुआ है। इस सिलसिले में जब पत्रकारों ने कृषि मंत्री शरद पवार ने पूछा कि महंगाई कब कम होगी तो उनका कहना था कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ जो यह जानूं। ज़रा सोचिये जब मंत्री को यह पता नहीं होगा तो यह किसे पता होगा। मंत्री जी तो कौन बताये कि मामूली सी महंगाई से आम जनता को परीशानी हो जाती है और अभी तो बेतहाशा महंगाई बढ़ रही है। आम जनता के घर का पूरा सिस्टम ही गड़बड़ हो गया है। ऐसे में मंत्री का ग़ैर जिम्मेदाराना बयान क्या साबित करता है। सच्चाई यह है कि आज राजनीती में ज्यादह तर ऐसे ही लोग हैं जिन्हें जनता कि फ़िक्र नहीं है वह राजनीती में हैं टी सिर्फ इसलिए कि इस दौरान अधिक से अधिक पैसे बना लिए जाएँ ताकि आने वाली नस्ल आराम से जीवन गुज़ार सके.