बुधवार, दिसंबर 28, 2011

मुसलमान ही करते हैं मुसलमानों के वोट का सौदा


हिंदुस्तान में जब भी चुनाव का समय आता है चाहे वह विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव सबसे अधिक बहस इस बात को लेकर होती है कि इस बार मुसलमान किसे वोट देंगे। चूंकि भारत में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या बस्ती है, इसलिए अधिकांश राज्यों में पार्टी की जीत या हार में मुसलमानों के वोट की बड़ी अहमियत होती है। मुसलमानों के वोट के इसी महत्व को समझते हुए राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों में से ही कुछ दलालों को तैयार करती हैं जो केवल अपने थोड़े बहुत लाभ के लिए मुस्लिम वोटों की दलाली का काम करते है। उनमें राजनीति में रुचि रखने वाले और हमेशा नेताओं के के आगे पीछे करने वाले लोग तो शामिल होते ही हैं दुख इस बात का है अपना उल्लू सीधा करने के लिए मुस्लिम वोटों की दलाली के इस काम में वह उलेमा हज़रात भी शामिल होते हैं या हैं जिन पर सारे मुसलमान नहीं तो कम से मुसलमानों की एक बड़ी संख्या आँख बंद कर के भरोसा करती है।
पिछले दिनों दिल्ली में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें वक्ताओं ने यह तो स्पष्ट शब्दों में नहीं कहा कि मुसलमानों को किस पार्टी को वोट देना चाहिए लेकिन वहां जो कुछ भी कहा गया इससे यह साफ जाहिर हो रहा था कि सब लोग मिल कर किस पार्टी के लिए वोट मांग रहे हैं। उक्त कार्यक्रम में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि मुसलमानों को राजनीतिक पार्टियां नहीं बनानी चाहिए। इस देश में मुस्लिम राजनीतिक दल की आवश्यकता ही नहीं है। दूसरी जिस बात पर विशेष बल दिया गया वह यह कि मुसलमान अपने वोट के महत्व को समझें और उसे विभाजित नहीं होने दें। कुल मिलाकर इस कार्यक्रम के आयोजन का उद्देश्य यह था कि मुसलमानों को चाहिए कि वह कांग्रेस को वोट दें। कमाल की बात तो यह है कि इस कार्यक्रम में उस जमाते इस्लामी हिंद के एक सचिव भी थे जिसने वेलफ़ैयर पार्टी के नाम से अपनी एक राजनीतिक पार्टी बनाई है। जब इस कार्यक्रम में यह कहा गया कि मुसलमानों को राजनीतिक दल बनाने की आवश्यकता नहीं है तो फिर पार्टी के सचिव ने इस पर आपत्ति क्यों नहीं।
अक्सर यह बात कही जाती है कि इस देश में मुसलमान इसलिए विभिन्न प्रकार की परेशानियों में घिरा हुआ है क्योंकि उसकी अपनी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है। अगर मुसलमान राजनीतिक रूप से मजबूत हो जाएं तो उनकी बहुत सी परेशानियों अपने आप कम हो जाएंगी। मगर अब जबकि मुसलमानों की कई राजनीतिक पार्टियां बन गई हैं और उनमें से कई ने तो शानदार परिणाम भी दिए हैं तो ऐसा कहा जा रहा है कि हिंदुस्तान में मुस्लिम राजनीतिक दल की न तो आवश्यकता है और न ही यहां यह संभव है।
मुस्लिम उलेमा और विशेषज्ञों का यह दोहरा व्यवहार क्यों?
सच्चाई यह है कि इस देश में अधिकांश मुस्लिम विशेषज्ञों और बड़े उलेमा भी किसी न किसी पार्टी के लिए काम करते हैं। जो बेचारे छोटे मौलाना हैं, वह तो बस अपने भाषण करने की क्षमता का फायदा उठाकर पूरे चुनाव के दौरान किसी पार्टी के लिए भाषण करने का ठेका ले लेते हैं और जो बड़े मौलाना हैं वह समाचार पत्रों द्वारा मुसलमानों से किसी पार्टी को समर्थन देने की अपील करते हैं। कुछ मौलाना ऐसे भी हैं जो चुनाव के दौरान उर्दू के अख़बारों में छोटे मोटे संगठन से नाम विज्ञापन प्रकाशित कराकर किसी विशेष पार्टी के इशारे पर किसी विशेष पार्टी के खिलाफ अभियान चलाते हैं। लेकिन यह तय है कि अधिकांश मौलाना इसी कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी पार्टी ने मुसलमानों का सबसे अधिक शोषण किया। कुछ कमज़ोर क़िस्म के मौलाना को तो कांग्रेस इस्तेमाल करती है जबकि जो बड़े मौलाना हैं और जिनकी बड़ी हैसियत है, वह कांग्रेस को एक तरह से कहें तो ब्लैक मेल करते हैं।
यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कांग्रेस को वोट नहीं दिया जाए। मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर कांग्रेस को ही वोट देना है तो फिर यह मौलाना हज़रात या मुस्लिम बुद्धिजीवी कांग्रेस से यह क्यों नहीं कहते कि मुसलमानों पर सबसे अधिक ज़ुल्म आपकी सरकार में ही हुआ है। वह कांग्रेस से यह क्यों नहीं कहते कि आपकी सरकार में ही जब चाहा मुसलमानों को किसी न किसी बहाने गिरफ्तार कर बिना किसी अपराध के जेलों में बंद किया जा रहा है। जिन मुस्लिम युवाओं का किसी मामले में निर्दोष होना लग लगभग तय हो गया है वह भी जेलों में बंद हैं। जिन्हें कई साल की यातना के बाद जेल से रिलीज किया जाता है उन्हें कुछ रुपये देकर बहला दिया जाता है। कांग्रेस् के लिए वोट मांगने वाले कांग्रेस् से यह कियूं नहीं पूछते की आप जिन मुसलमानों के वोट की मदद से सरकार बनाते हैं उन्हीं मुसलमानों को बार बार क्यों देश भक्त होने का सबूत देना पड़ता है। जब यह मुस्लिम बुद्धिजीवी या मौलाना हजरात मुसलमानों से कांग्रेस को ही वोट देने की अपील करते हैं तो वह उनसे यह भी तो कह सकते हैं कि काँगरेस मुसलमानों पर अत्याचार बंद करे। उसके शासनकाल में आए दिन जो नियोजित साजिश के तहत साम्प्रदायिक दंगे कराकर जिस तरह मुसलमानों की हत्या है या फिर उनकी दोलतें लौटी जाती हैं उस पर रोक लगे।
कुछ हज़रात तो केवल अपना उल्लू सीधा करने के लिए खुद को मुसलमानों का हमदर्द बताते हैं मगर इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में हर किसी को पता है कि वह कांग्रेस के लिए काम करते हैं मगर वह अपनी क़ौम के लिए भी चिंतित रहते हैं। इनमें मौलाना अरशद मदनी का नाम लिया जा सकता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह हर दौर में कांग्रेस के साथ रहे और हर चुनाव में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से कांग्रेस की मदद करते रहे। इसका उदाहरण उन्होंने असम चुनाव में भी दिया जहां उनके लोगों ने बदरुद्दीन अजमल के खिलाफ कांग्रेस का समर्थन किया। इसके बावजूद अरशद मदनी हमेशा मुसलमानों की आवाज उठाते रहते है। उनका एक सबसे बड़ा काम विभिन्न घटनाओं में गिरफ्तार निर्दोष मुसलमानों को मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध कराना है। उनके इस काम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। एक तरफ जहां बहुत से मौलाना लोग उर्दू अखबार म केवल प्रेस विज्ञप्ति भेज कर समझते हैं कि उन्होंने मुसलमानों पर एहसान कर दिया वहीं दूसरी ओर मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान कराकर अरशद मदनी साहब की टीम एक बड़ा काम कर रही है।
खैर बात होरी थी चुनाव और मुसलमान की। हमेशा यह सवाल उठता रहा है कि मुसलमान किसे वोट दें। चुनाव करीब आते ही यह कहा जाने लगता है कि मुसलमान अपना वोट बंटने नहीं दे। इन दिनों मौलाना वाली रहमानी भी यही कह रहे हैं। जो मुसलमान कुछ हद तक होशमंद हैं और पढे लिखे हैं उन पर तो किसी अपील का असर नहीं होता लेकिन अधिकांश ऐसे हैं जो तथाकथित मुस्लिम संगठनों की अपील के अनुसार अपनी राय बनाते हैं। इन संगठनों या फिर मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मेरी अपील है कि कृपया अपने कुछ लाभ के लिए पूरी मिल्लत के साथ धोखा नहीं करें। अगर लोग उन पर भरोसा करते हैं तो उन्हें चाहिए कि वह उनकी भावनाओं से न खेलें। मुसलमानों से बड़े संगठन मिलकर ऐसा साझा निर्णय लें जिससे मिल्लत का भी फायदा हो और देश का भी।

शनिवार, दिसंबर 03, 2011

सौ में से नब्बे बेईमान

ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल करप्शन इंडेक्स में भारत की पोजीशन और भी खराब हो गयी है। एक से लेकर दस के स्केल पर भारत को 3.1 नंबर मिला है। यानि यदि 33 को पास मार्क्स माना जाये तो भारत ईमानदारी के इम्तिहान में फेल हुआ है। यह कितने अफसोस की बात है की वयक्तिगत तौर पर कई मामलों में दूनया में मशहूर भारत बेईमानी के मामले में भी मशहूर है। हद तो यह है की आर टी आई जैसे कानून लागू होने के बावजूद इस देश में करप्शन रुकने का नाम नहीं ले रहा है। यहाँ ऐसा लगता है की रिश्वत के बिना कुछ संभव ही नहीं है। रिश्वत ऐसे ली जा रही है जैसे यह ज़रूरी है और इसके बिना कुछ होना संभव नहीं है हैं। जिसे जहां मोका मिल रहा है वहीं लूट खसोट में लगा हुआ है।
इन दिनों आए दिन बड़े बड़े घोटालों की खबरें आने का मतलब यह नहीं है की यहाँ बेईमानी बढ़ गयी असल में हो यह रहा है की पहले की बेईमानी छुप जाती थी अब मीडिया के मजबूत हो जाने की वजह से बेईमानी को छुपाना मुश्किल हो रहा है। यह मीडिया का ही कमाल है की आज बड़े बड़े नेता जेल की हवा खा रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में हर किसी को पता है की वो भी बेईमान हैं मगर पुख्ता सबूत नहीं होने की वजह से वो अभी बाहर की ज़िंदगी के मज़े ले रहे हैं। यदि सब कुछ ठीक ठाक रहा तो हम बाहर घूम रहे इन भरष्टाचारियों को भी जल्द ही सलाखों के पीछे देखेंगे।
एक इंसान के लिए बेईमान या भरष्टाचार होना कोई बड़ी बात नहीं है मगर अफसोस की बात तब होती है जब लोग बेईमानी भी करते हैं और बेशर्मी से खुद को बेक़सूर भी बताते हैं। आजकल नेताओं का मामला कुछ ऐसा ही है आए दिन देखने में आ रहा है की कोई न कोई नेता का किसी बड़े घोटाले में आ रहा है। गुस्सा तब आता है जब यह बेशर्म नेता सबूत होने के बाद खुद को ईमानदार बताते रहते हैं। उस से बड़ी हद तब होती है जब बड़े नेता अपने बेईमान नेता को बचाने की कोशिश भी करते रहते हैं। नेताओं में साफ सूत्री छवि का नेता तलाशना बड़ा मुश्किल काम है। ऐसा लगता है इस हमाम में सभी नंगे हैं। कमाल की बात तो यह है की जो लोग भरष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं उन पर भी आंच आ रही है।
वैसे जहां तक सरकारी दफ्तरों में भरष्टाचार का सवाल है तो इस के बाबू के अधिक जनता भी जिम्मेदार है। हम खुद दूसरों से पहले अपना काम करने या फिर ग़लत तरीके से लाभ उठाने के लिए रिश्वत की पेशकश करते हैं। रिशव्त देने की पहल करके यदि हम यह कहें की फलां रिश्वत ले रहा है तो यह ग़लत है.

रविवार, अगस्त 14, 2011

बेकार है ऐसी आज़ादी!


हर साल 15 अगस्त आते ही एक अजब सी खुशी सा अहसास होता है। हर तरफ राष्ट्रिए गीत बजते रहते हैं। स्कूलों में बच्चे रंगबिरंगे प्रोग्राम पेश करते हैं। हर किसी के हाथ में झण्डा होता है। लोग अपने उन मासूम बच्चों के हाथ में भी तिरंगा थमा कर खुद भी खुश होते है और उसे भी खुशी का अहसास दिलाते हैं जो ठीक से तिरंगा को संभाल भी नहीं पाता। यह सब देखकर जो खुशी मिलती है उसे लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता। हमें आज़ाद होने का अहसास होता है। हमारे बड़े हमें यह कहानी सुनाते हैं की किस तरह हमारे बाप दादाओं ने अंग्रेजों से लड़ाई की , अपनी जानें गँवाईं और न जाने कितने लोगों की कुर्बानी के बाद हमें यह आज़ादी नसीब हुई है और हम एक आज़ाद मुल्क में सांस ले रहे हैं। मगर इमानीदारी से देखा जाये तो यह सब चीज़ें कहने सुनने में जितनी अच्छी लगती है प्रैक्टिकल में उतनी अच्छी नहीं हैं।
ज़रा ग़ौर कीजिये किया वाकई में हमारा मुल्क आज़ाद है। किया यहाँ हर कोई चैन की सांस ले रहा है। किया हर किसी की बुनयादी जरूरतें पूरी हो रही है। किया बेगुनाहों के साथ इंसाफ हो रहा है, मजदूरों को उचित मजदूरी मिल रही है, और न जाने ऐसे ही कितने सवाल है जिसका सीधा सा जवाब है नहीं। इस देश में अमीर, अमीर ही होता जा रहा है और जो ग़रीब है वो खुद और उसके बीवी बच्चे भी दो वक़्त की रोटी के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं। यहाँ बहुत कम लोग ऐसे हैं जो खुश है। न बच्चा खुश है न बूढ़ा खुश है और न ही जवान। बच्चा कूपोषण का शिकार है। जो किसी तरह खुदा की महरबानी से बचपन में ही नहीं मारता और कुछ जी लेता है वो बच्चा मजदूरी करने के लिए मजबूर है। सरकार के पास बच्चों की भलाई के लिए एक दो नहीं बल्कि कई योजनाएँ हैं मगर किया इन योजनाओं का लाभ उन बच्चों को मिल रहा है जिन के लिए यह योजनाएँ बनी हैं। सर्वशिक्षा अभियान के तहत सरकार ने बच्चों के किताबें और खाना का इंतज़ाम तो कर दिया मगर किया ऐसे स्कूलों की संख्या हजारों या लाखों में नहीं है जहां बच्चों के लिए आने वाला राशन कोई और ले जाता है। किया यह सही नहीं है की हमरे देश में लाखों की संख्या में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। किया यह सहीं नहीं है की जिन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए वो कहीं मजदूरी कर रहे हैं। जिन मासूम बच्चों के हाथों में किताब और पेंसिल होनी चाहिए वो किसी ढाबे में किसी का जूठा बर्तन धो रहा है या फिर चाय की दुकान में छोटू छोटू की आवाज़ पर आया बाबू जी की आवाज़ लगा रहा ही। 15 अगस्त के दिन ही देख लीजिये जहां अमीरों के बच्चे रंग बिरंगे कपड़ों में स्कूल में मज़ा कर रहे होते हैं वहीं ग़रीब के बच्चे उसी स्कूल के पास कूड़ा बीन रहे होते हैं। आपको ऐसे बहुत से स्कूल मिल जाएँगे जहां एक तरफ जहां कुछ बच्चे स्कूल में प्रोग्राम पेश कर रहे होते है वहीं स्कूल के गेट से कुछ बच्चे अपने हाथों में कूड़ा की गठरी लिए अंदर प्रोग्राम कर रहे बच्चों को झांक रहे होते हैं। आखिर इन ग़रीब बच्चों के लिए किया मतलब है इस आज़ादी का। अंग्रेजों के जमाने में भी इन्हें रोटी नसीब नहीं थी और आज जबकि देश आज़ाद हो गया है तो आज भी इन्हें रोटी नसीब नहीं हो रही है। इन ग़रीब बच्चों के माँ बाप पहले अंग्रेजों की ग़ुलामी करते थे अब बड़े जमींदारों की गुलामी करते हैं।
अब बात करें नौजवानों की। देश में सब से ज्यादाह परीशन नौजवान ही हैं। जो नहीं पढ़ सका वो भी और जिस ने पढ़ाई कर ली वो भी नौकरी के लिए दर दर भटक रहा है। बेरोजगारी का यह आलम है की पी एच डी कर चुके लोग चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। सरकार ने एक न्यूनतम मजदूरी तय कर रखी है मगर करोड़ों की संख्या में ऐसे नौकरीपेशा हैं जिन्हें सरकार दूवारा तय न्यूनतम मजदूरी से कम पैसा मिल रहा है। अनपढ़ तो कई प्रकार के काम कर लेते हैं पढे लिखे अधिक परीशन हैं। उनकी समस्या यह है की वो हर काम कर नहीं सकते और जो कर सकते हैं उसमें उन्हें नौकरी नहीं मिलती और अगर किसी तरह चप्पल घिसने के बाद नौकरी मिल भी जाती है तो तनख्वाह इतनी होती है की एक वक़्त खाओ तो अगले वक़्त का सोचना पड़ता है। बेरोजगारी और फिर उसकी वजह से ग़रीबी ने लोगों का जीना हराम कर रखा है। आए दिन ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं की फलां गाँव में फलां वायक्ति ने ग़रीबी से तंग आकार पहले अपने मासूम बच्चो को मारा और फिर खुद भी जान दे दी। हद तो यह है की जिस देश में हम आज़ादी की खुशी मानते हैं वहाँ भूख से भी लोग मर रहें हैं। ज़रा सोचिए जिस देश में हजारों टन अनाज रखे रखे सड़ जाता है उस देश में भूख से किसी की मौत हो जाना उस पूरे देश के लिए शर्म की बात नहीं तो और किया है। जिस देश को किसानों का देश कहा गया है वहाँ किसानों के साथ ही धोखा हो रहा है। कहीं किसानों से ज़मीन छीनी जा रहाई है तो कहीं किसान क़र्ज़ के बोझ से दबकर खुदकुशी कर रहे हैं। बूढ़ों की ज़िंदगी तो और भी बुरी है। जब चुनाव होता है तो यह बूढ़े तकलीफ उठा कर अपने बच्चों के कंधे पर बैठ कर वोट देने जाते हैं मगर जब उन्हें राशन और पेंशन की ज़रूरत होती है तो उनकी आंखे ताकती ही रह जाती हैं। इस देश में वही आज़ाद है जिसके हाथ में लाठी है और वही लोग मज़े कर रहे हैं जो इन लाठी वालों के साथ है। केंद्र की लाठी सोनिया के हाथ में हैं इसलिए उनके लोगों ने बाबा रामदेव और उनके लोगों पर लाठीयान बरसाईं और किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। उसी तरह बिहार में इन दिनों लाठी नितीश कुमार के पास है उनके पोलिसे वालों ने फारबिसगंज में बेगुनाह मुसलमानों को मौत के घाट उतारा मगर वहाँ भी किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। ग़रीब की सुनने वाला कोई नहीं है। राजनेताओं में अधिकतर का मक़सद यही होता ही की अधिक से अधिक पैसे बनाए जाएँ। किसी को देश सेवा से कुछ लेने देना नहीं है सब फालतू की बातें हैं। आज देख लीजिए हर ओर से भरष्टाचार की खबरें आ रही हैं। जिसे जब मोका मिला उसने देश को लूटा । पहले अंग्रेजों ने लूटा अब अपने ही लूट रहे हैं।
हमारे देश में योजनाओं की कमी नहीं है। मगर उनमें अधिकतर या तो कागज़ पर ही काम करती है या फिर उनसे सिर्फ उन्हीं लोगों को लाभ होता है जो दाव पेंच में माहिर होते है। जो ग़रीब हैं उन्हें इंद्रा आवास का घर नहीं मिल रहा और जो पैसे वाले हैं उनहों ने कई कई घर ले रखे हैं। ग़रीबों का नाम बी पी एल में नहीं है और जिनकी आय हजारों में है वो बी पी एल के मज़े ले रहे हैं। ग़रीब आदमी एक लीटर किरासन के लिए तरस रहा है और अमीरों के यहाँ तेल भरे पड़े हैं। किया आज़ादी का यही मतलब होता है? जब भूक से लोग मरते रहें, किसान खुदकुशी करते रहें, प्रसव के दौरान मामूली दावा की कमी से महिलाओं के मौत होती रहे, बच्चे स्कूल के बजाए चाय की दूकान पर काम करते रहें, लाखों लोग ज़िंदगी भर फूटपथ पर सोने को मजबूर हों तो ऐसे में किया यह कहना उचित नहीं है की बेकार है ऐसी आज़ादी।

रविवार, अगस्त 07, 2011

इतनी बेशर्मी भी ठीक नहीं है


इस बात से किसी को इनकार नहीं हो सकता की अब हमारे देश ने बहुत तरक़्क़ी कर ली है बल्कि कई मामलों में तो हमने कई बड़े देशों को पीछे भी छ्ोड़ दिया है. मगर अच्छी बात तब है जब हम पढ़ने में तरक़्क़ी करें, खेल में तरक़्क़ी करें, बीजनेस्स में तरक़्क़ी करें अगर हम दूसरे देशों से बेशर्मी में मुक़ाबला करने लगे तो इसे किसी मामले में ठीक नहीं कहा जा सकता. कनाडा से प्रेरित हो कर भारत जैसे देश में बेशर्मी मोर्चा की वॉक या फिर स्लॅट वॉक जैसा आयोजन एक बहुत ही बुरी शुरूआत है जिसका अंजाम बहुत बुरा होगा. पहले सेम सेक्स में शादी , फिर सच का सामना जैसा प्रोग्राम, लिव इन रिलेशन में रहने की बढ़ती परविर्ति और फिर अब स्लट वॉक इन सब से हम आख़िर किया साबित करना चाहते हैं. कोई भी होशमंद आदमी स्लट वॉक को कैसे सही ठहरा सकता है. यह तो अजब बात हुई की हम जैसे कपड़ों में चाहें घूमें हमें छेड़ो मत. बहुत से लोगों को मेरी यह बात बुरी लग सकती है मगर किया शेर के सामने गोश्त रखनकर उस से यह उम्मीद रखना की वो गोश्त नहीं खाएगा बेवक़ूफी नहीं तो और किया है. उसी प्रकार यदि किसी अर्धनांग लड़की को देखकर किसी का सेक्स न जागे तो किया उसे नपुंसक नहीं समझा जाएगा। इस हक़ीक़त को तसलीम करना पड़ेगा की जो महिलायें या लड़कियाँ अच्छे कपड़ों में बाहर निकलती है उनके साथ छेड़ छाड़ या रेप जैसी घटनाएँ बहुत ही कम होती हैं. अगर किसी को नंगे ही रहना ही तो अपने घर में रहे ना, बाहर नंगे घूमना किया ज़रूरी है. उसी प्रकार भारत में लिव इन रिलेशन को कैसे उचित ठहराया जा सकता है. जीवन का मज़ा लेने के लिए ही तो शादी की जाती है. और वैसे भी जो लोग लिव इन में रहते हैं वो दरअसल सामाजिक ज़िम्मेदारियों से भागते हैं. लिव इन रहने वाली महिलायें या फिर मर्द वो होते हैं जो अपने बच्चों का बोझ, अपने माँ बाप का बोझ और फिर समाज का बोझ नहीं उठना चाहते है, उनका सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है शारीरिक मज़े उठना और वो सिर्फ़ इसीलिए लिव इन में रहते हैं. किसी भी धर्म में इस प्रकार के रिश्ते को उचित नहीं माना जा सकता. आज भारत ने पश्चिमी देशों की बहुत सी बातों को अपना लिया है और इसी कारण बहुत सी बुराइयाँ हमारे देश में भी फैलने लगी हैं. यदि आने वाले दिनों में इस प्रकार के स्लॅट वॉक या फिर गे या लेसबियन की रैलियों पर रोक नहीं लगाई गयी तो इसका अंजाम ख़तरनाक हो सकता है.

बुधवार, जुलाई 20, 2011

राहुल गांधी की राजनीतिक नौटंकी

इन दिनों भारत का सबसे चर्चित चेहरा यदि कोई है तो वो हैं राहुल गाँधी. राहुल ना सिर्फ़ कांग्रेस के बल्कि देश के सबसे महत्वपूर्ण नाम हैं. राजनीतिक पार्टियों की मानें तो राहुल इन दिनों उत्तर प्रदेश में तरह-तरह के नाटक कर रहे हैं. पहले उन्हों ने भट्टा पारसौल गाँव के परेशान किसानों से मुलाक़ात की और फिर उसके बाद ग्रेटर नोएडा से अलीगढ़ तक पदयात्रा. राहुल और उनके लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि राहुल जनता से बहुत प्रेम करते हैं इसलिए वो कभी दलित के यहां खाना खाने जा रहे हैं तो कभी दलित का हाल चाल पूछने पहुँच जा रहे हैं. कुछ हद तक देखा जाये तो यह सही भी है।

जो राहुल चैन की नींद सो कर सिर्फ बयानबाजी से काम चला सकते थे वो यदि जनता के बीच जा रहे हैं तो इस से यह साबित तो होता ही है कि उन्‍हें आम जनता से प्रेम है। मगर उनसे कोई यह क्यूं नहीं पूछता कि आपको सबसे अधिक परेशान उत्तर प्रदेश के लोग ही क्‍यों नज़र आ रहे हैं. क्या देश के बाक़ी हिस्सों के किसान बहुत खुश हैं उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं है. ऐसा नहीं है. ईमानदारी से देखा जाए तो देश के दूसरे भागों खास तौर पर विदर्भ के किसानों की हालत को कौन नहीं जानता. वहाँ आए दिन किसानों के आत्महत्या की खबरें सुनने को मिलती हैं. मगर राहुल को चिंता है तो सिर्फ़ यूपी के किसानों की.

इस की सब से बड़ी वजह है यूपी का चुनाव. अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले है और इसी चुनाव में लाभ उठाने के लिए राहुल यह सारा खेल खेल रहे हैं. यह हो सकता है की देश के दूसरे नेताओं की भाँति राहुल पूरी तरह से बेईमान नहीं हों, उनके अंदर जनता के प्रति कुछ ना कुछ हमदर्दी है, मगर यह तो तय है कि पदयात्रा या फिर ग्रेटर नोएडा के किसानों के साथ उनकी जो सहानुभूति दिख रही है वो पूरी तरह से राजनीतिक है. कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी तो है मगर उसके अंदर बेईमान नेताओं की कमी नहीं है, ऊपर से इन दिनों इस सरकार का कोई ना कोई मंत्री किसी ना किसी मामले में आए दिन जेल पहुँच रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस के पास राहुल ही एक ऐसा चेहरा है जिसे जनता पसंद करती है. इसलिए राहुल को उत्तर प्रदेश की जंग जीतने के लिए तरह तरह की नौटंकी करने के लिए कहा जा रहा है। अब देखने वाली बात यह होगी कि उत्तर प्रदेश के इलेक्शन में राहुल की इस राजनीतिक नौटंकी का क्‍या और कितना लाभ कांग्रेस को मिलता है।

मगर राहुल की पदयात्रा को पूरी तरह से राजनीतिक नौटंकी कह कर नकार देना भी उचित नहीं है। खुद राहुल की मानें तो उनकी इस पदयात्रा का मक़सद भट्टा परसौल से आगरा और अलीगढ़ तक हो रहे भूमि अधिग्रहण से प्रभावित हुये किसानों से मिलना और उनकी समस्याएं जानना था। अखबार में आई तस्वीरों से तो यह ज़रूर पता चला कि राहुल बहुत सारे किसानों से मिले। गंदे गंदे गांव की खाक छानी, किसानों की समस्याएं सुनी मगर किसानों की इन समस्याओं का वो कितना समाधान कर पाएंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। भट्टा पारसौल गाँव में पुलिस कारवाई के बाद राहुल उस गाँव गए भी थे धरने पर भी बैठे थे और गिरफ्तारी भी दी थी।

चूंकि अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं इसलिए राहुल की इस पूरी कोशिश को राजनीतिक कहना गलत तो नहीं होगा, मगर उनकी इस कोशिश की सराहना इस लिए भी की जा सकती है कि ऐसे में जब आज की राजनीति में छोटे छोटे नेता सिर्फ डींगें हाँकते हैं, हेलीकाप्टर में बैठ कर रैली को संबोधित करने चले जाते हैं और एयरकंडीशन कमरों में बैठ किसानों की चिंता की बात करते हैं, ऐसे में देश के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति का पैदल यात्रा करना और गाँव की खाक छनना मामूली बात नहीं है। राहुल को कितने कांग्रेसियों का समर्थन प्राप्त है यह तो नहीं पता अलबत्‍ता वो जो कर रहे है उस से दूसरी राजनीतिक पार्टियों को चिंता ज़रूर हो रही है। उन्हें कहीं न कहीं यह डर ज़रूर साता रहा है कि राहुल अपनी इस लोगों से मिलने मिलाने की हरकत से लोगों के बीच मक़बूल हो रहे है और इसका लाभ हर हाल में कांग्रेस को ही मिलेगा।

उत्तर प्रदेश में भाजपा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी यह तीनों पार्टियां ऐसी है जो राहुल की इस पूरी यात्रा को महज़ एक नाटक मान रही है। मगर यहाँ एक खास बात यह भी है कि जिन पार्टियों को राहुल की पदयात्रा या फिर उनका भट्टा परसौल जाना महज़ एक नाटक नज़र आ रहा है वो पार्टियां किसानों के लिए खुद किया कर रही हैं यह भी देखने वाली बात होगी। जहां तक राहुल का सवाल है तो हम उनकी इस यात्रा को नाटक कहें या फिर राजनीतिक लाभ हासिल करने का एक तरीका, मगर यह तो मानना ही पड़ेगा कि जनता राहुल को खूब पसंद कर रही है। यही कारण है कि वो जहां भी जा रहे हैं उन्हें सुनने और उनसे मिलने के लिए लोगों का तांता लग जाता है। अब राहुल आम जनता के बीच अपनी यह पैठ कितने दिनों तक बनाए रख पाते है यह भी देखना दिलचस्प होगा।

गुरुवार, जून 02, 2011

पाकिस्तानी क्रिकेट में हलचल


पाकिस्तानी क्रिकेट में कब किया हो जाये कहा नहीं जा सकता। कल तक जिस शहीद आफरीदी की टीम में तूती बोलती थी उस के लिए हालात ऐसे बन गए की उसे समय से पहले अंतर्राष्ट्रीए क्रिकेट को अलविदा कहना पड़ा। जी हाँ वही शाहिद आफरीदी जिन्हें कभी गेंदबाजों की धुनाई के लिए जाना जाता था उनकी अब टीम में ऐसी हैसियत हो गयी की उन्हें क्रिकेट को समय से काफी पहले अलविदा कह देना पड़ा। कहा यह जा रहा है बल्कि सच्चाई भी यही है की अफरीदी ने यह कदम इसलिए उठाया की वो बोर्ड दुयारा पाकिस्तान की एक दिवसीय टीम की कप्तानी से हटाए जाने से नाराज थे। पाकिस्तानी क्रिकेट का इतिहास बताता है की यहाँ खिलाड़ियों में न तो कभी आपस में बनी और न ही कभी खिलाड़ी बोर्ड से खुश रहे। इमरान खान और जावेद मियानदाद पाकिस्तानी क्रिकेट की तारीख के दो बड़े स्टार रहे हैं मगर इन दोनों में कभी नहीं बनी। जहां तक बोर्ड का सवाल है तो कोई खिलाड़ी अगर खुश रहा तो बोर्ड से नाराज़ खिलाड़ियों की कमी भी नहीं रही। कुछ खिलाड़ी खुद को बोर्ड से बड़ा भी मानते रहे। इस बार भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। आफरीदी के बयान से भी ऐसा ही लग रहा है की वो न सिर्फ बोर्ड की हरकत से नाराज़ हैं बल्कि चाहते हैं की बोर्ड अपनी गलती पर शरिन्दा हो। तभी तो उनहों ने जोर देकर कहा वह तभी वापसी करेंगे जब पीसीबी के 'निम्नस्तरीय' प्रशासक इस्तीफा देंगे।
आफ़र्दी की वापसी होती है या नहीं इसका फैसला हो सकता है की जब आप यह पंक्ति पढ़ रहे हो तो हो जाये मगर उनहों ने सन्यास की घोषणा के समय जो कहा वो यह है 'लोगों ने मुझे काफी सम्मान और प्यार दिया है और मैं इस बोर्ड के साथ काम करके इसे बर्बाद नहीं करना चाहता जिसे यह भी नहीं पता कि खिलाड़ियों का सम्मान कैसे करते हैं।' पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड पर निशाना साधते हुए 31 वर्षीय अफरीदी ने प्रशासकों के मौजूदा समूह को 'निम्नस्तरीय लोग' बताया। इस अनुभवी आलराउंडर ने कहा कि जब तक एजाज बट की अध्यक्षता वाला मौजूदा बोर्ड बरकरार रहेगा तब तक वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट नहीं खेलेंगे। उन्होंने कहा, 'मैं यह साफ करना चाहता हूं कि जब तक मौजूदा बोर्ड रहेगा तब तक मैं अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट नहीं खेलूंगा। जब ये अधिकारी चले जाएंगे और अगर लोग चाहेंगे कि मैं खेलूं तो मैं वापसी पर विचार कर सकता हूं।'
असल में सारी कहानी यह है की आफरीदी इस बात से नाराज़ थे की उन्हें किसी खास कारण के कप्तानी से हटा दिया गया। उनहों ने कहा इस बोर्ड में मेरी कोई कदर नहीं है जिसने मुझे कप्तान के रूप में बर्खास्त करने का ना तो कोई कारण बताया और ना ही मेरा पक्ष सुनने की कोशिश की। मुझे नहीं पता कि उन्होंने किस आधार पर मुझे कप्तानी से बर्खास्त किया। मैंने बिखरी हुई टीम को संवारने में कड़ी मेहनत की और इसे जुझारू टीम में बदला। हम विश्व कप सेमीफाइनल में खेले और इसके बावजूद उन्होंने मेरा पक्ष सुने बिना मुझे बर्खास्त कर दिया।'
मालूम हो की बोर्ड ने वेस्टइंडीज के खिलाफ एक दिवसीय सीरीज में पाकिस्तान की 3-2 की जीत के बावजूद अफरीदी को कप्तान के पद से हटा दिया था। बोर्ड ने उन्हें हटाने का कोई आधिकारिक कारण तो नहीं बताया लेकिन माना जा रहा है कि यह अफरीदी के कोच वकार यूनुस के साथ चयन मुद्दों पर बढ़ते मतभेद का नतीजा था। अफरीदी ने दावा किया कि लाहौर के पंजाब प्रांत का एक समूह है जो हमेशा उनके खिलाफ रहता है। उन्होंने कहा,'यह समूह हमेशा मेरे खिलाफ काम करता है। ये मेरे खिलाफ अध्यक्ष के कान भरते रहते हैं। शायद वे नहीं चाहते कि मैं खेलूं क्योंकि मैं उनकी योजना के आड़े आता हूं।' आफरीदी ने यह भी आरोप लगाया कि कप्तान के रूप में टीमों के चयन के दौरान कभी उनसे सलाह मशविरा नहीं किया जाता। इसके अलावा सीरीज से पहले अंतिम वक्त तक उन्हें सुनिश्चित नहीं होता कि वह कप्तान होंगे।
आइयरलैंड के खिलाफ मैच के लिए कप्तानी से हटाए जाने के बाद अफरीदी टीम से भी हट गए। उन्होंने बोर्ड से कहा कि वह अपने बीमार पिता के साथ समय बिताना चाहते हैं जो अमेरिका में उपचार करा रहे हैं। लेकिन वह अमेरिका से इंग्लैंड पहुंच गए और लंदन से अपने संन्यास लेने की घोषणा की। आफरीदी खुद जो कहें मगर क्रिकेट के जानकार अफरीदी की इस हरकत को उचित नहीं मानते। उनके अनुसार बोर्ड को यह हक़ हासिल है की वो किसे कप्तान बनाए और किसे नहीं आपका काम सिर्फ खेलना है और आपको हर हाल में देश के लिए खेलने को तैयार रहना चाहिए।
इस सिलसिले में पूर्व पाकिस्तानी कप्तान जहीर अब्बास ने कहा, 'मुझे समझ में नहीं आ रहा कि उसे ऐसा करने की क्या जरूरत थी। आज वह बोर्ड को कसूरवार ठहरा रहा है लेकिन वह भूल गया कि आस्ट्रेलिया में गेंद से छेड़छाड़ के विवाद के समय इसी बोर्ड ने उसका साथ दिया था जबकि वह फार्म में भी नहीं था।' उन्होंने कहा, 'टीम जब विश्व कप सेमीफाइनल में पहुंची तो बोर्ड ने उसे पुरस्कार के साथ काफी सम्मान भी दिया।' अब्बास ने कहा कि यदि उसे टीम प्रबंधन से समस्या थी तो उसे बोर्ड अध्यक्ष एजाज बट के सभी पक्षों से मिलकर समस्या का समाधान तलाशने तक इंतजार करना चाहिए था।
पूर्व टेस्ट लेग स्पिनर और पूर्व मुख्य चयनकर्ता अब्दुल कादिर ने भी अफरीदी की संन्यास शब्द का मखौल बनाने के लिए आलोचना की। उन्होंने कहा, 'आजकल संन्यास का ऐलान करना मजाक बन गया है। हमारे खिलाड़ी नियमित तौर पर ऐसा कर रहे हैं जिससे पाकिस्तान क्रिकेट को नुकसान हो रहा है।' पूर्व टेस्ट स्पिनर इकबाल कासिम ने कहा कि अफरीदी के फैसले से पाकिस्तान क्रिकेट को नुकसान ही होगा। वैसे कई ऐसे भी हैं जो आफरीदी के फैसले को उचित ठहराते हैं। ऐसे लोगों का कहना है की जिस कप्तान ने टीम को विश्व कप के सेमी फ़ाइनल में पहुंचाया उसके साथ बोर्ड को ऐसा सुलूक नहीं करना चाहिए।
आफरीदी का यह फैसला उचित है या नहीं इसपर बहस आगे भी चलती रहेगी मगर इतना तो तय है की आफरीदी की गिनती पाकिस्तान के अच्छे क्रिकेटरों में होती थी। हाल ही में आफरीदी की कप्तानी में ही पाकिस्तानी टीम विश्व कप के सेमी फ़ाइनल तक पहुंची। एकदिवसीए क्रिकेट में आफरीदी ने तेज़ बल्लेबाज़ी का एक शानदार नमूना पेश किया। अपने दूसरे ही मैच में उनहों ने सिर्फ 37 गेंदों पर ही शतक ठोंक दिये। यह एकदिवसीए क्रिकेट का आज भी सबसे तेज़ शतक है। शुरू में अपनी तेज़ बल्लेबाज़ी के लिए मशहूर हुये अफरीदी बाद में बेहतर गेंदबाजी भी करने लगे। उन्होंने कुल मिलकर 325 एक दिवसीय मैचों में भाग लिए हैं जिन में 23.49 की औसत से उनहों ने 6,695 रन बनाए हैं । उनका स्ट्राइक रेट 113.82 रहा। एक गेंदबाज के तौर पर उन्होंने 34.22 की औसत से 315 विकेट भी प्राप्त किए। अफरीदी ने 43 ट्वंटी-20 मैच भी खेले हैं जिनमें उनहों ने 683 रन बनाने के अलावा 53 विकेट हासिल किए हैं। अफरीदी को 27 टेस्ट मैच भी खेलने का मौका मिला जिनमें उनहों ने 1,716 रन बनाए और एक गेंबाज़ के तौर पर 48 विकेट हासिल किए। आफरीदी की वापसी होगी या नहीं यह तो पता चल ही जाएगा, अगर उनकी वापसी नहीं होती है तो उनकी तेज़ बल्लेबाज़ी और किसी को आउट करने के बाद उनके खुश होने का एक खास अंदाज़ हमेशा उनकी याद दिलती रहेगी।

मंगलवार, मार्च 01, 2011

और भी गम हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा

वैसे तो क्रिकेट के दसवें विश्व कप का आग़ाज़ 19 फरवरी को भारत और बांग्लादेश के बीच खेले गए मैच से हुआ, मगर इस के कुछ दिन पहले से ही भारत पूरी तरह से इस के रंग में रंग गया है। विश्व कप शुरू होने के लगभग एक सप्ताह पहले से ही क्रिकेट की खबरें तो खूब आ ही रही थीं, अब जबसे विश्व कप शुरू हुआ है ऐसा लगता है क्रिकेट के अलावा इस देश में कुछ हो ही नहीं रहा है। समझ में नहीं आता यह क्रिकेट का बुखार है या फिर जनता की बेबसी, जो कई बड़े मुद्दों को छोडकर पूरी तरह से क्रिकेट के पीछे लगी हुई है। जिसे देखो वो सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट की बात कर रहा है। जब से विश्व कप की गहमा गहमी शुरू हुई है तब से भारत समेत विश्व के दूसरे देशों में भी कई बड़ी खबरें सामने आयीं हैं, मगर उन खबरों को वैसा महत्व नहीं दिया जा रहा है जैसा क्रिकेट को दिया जा रहा है।


टू जी स्पेक्‍ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री ने खुद को हर ओर से घिरता देख इलेक्‍ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों के साथ प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया। संसद का कामकाज ठीक से चले इसके लिए कोशिशें होती रहीं। कई मुस्लिम देशों में बड़ा संघर्ष देखने को मिला। मगर यह सब खबरें क्रिकेट से पीछे दब गईं। हद तो यह हो गई कि पत्रकारों ने प्रधानमंत्री के साथ एक संजीदा इशू पर हुई कांफ्रेंस में क्रिकेट से संबंधित सवाल पूछ लिया। समाचार-पत्रों में और टेलीविज़न पर इन दिनों घट रही बड़ी खबरों को उतनी जगह नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए। कारण यह कि अब हर किसी को क्रिकेट पसंद है, क्रिकेट पसंद नहीं भी है तो जबरदस्ती आपको क्रिकेट को पसंद करना पड़ेगा। क्‍योंकि यदि आप टेलीविज़न देखने के शौकीन हैं तो आपको तो क्रिकेट के अतिरिक्त वहाँ कोई खबर मिलेगी ही नहीं तो फिर देखेंगे क्‍या। मजबूरी में आपको भी क्रिकेट को पसंद करना पड़ेगा।

मार्केट के बड़े-बड़े खिलाड़ियों की एक साजिश के तहत अब क्रिकेट ने हर किसी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर विश्व कप के दौरान झारखंड में राष्‍ट्रीय गान भी हो रहे थे, उसके बारे में तो किसी को पता ही नहीं चला। इस गेम के दौरान कई नए रिकार्ड बन गए मगर आम पाठक को इसका अंजदाजा हुआ भी नहीं। होता भी कैसे अखबार में तो हर तरफ क्रिकेट की ही धूम थी और है। पहले कहा जा रहा था कि क्रिकेट को इतना महत्व दिया जा रहा है कि दूसरे खेल बिल्कुल दब गए हैं। मगर अब सिर्फ खेल नहीं दब गए हैं बल्कि कई बड़े समाचार भी दब गए हैं। दूसरे खेलों में बड़ा-बड़ा कमाल करने वाला खिलाड़ी अपनी पहचान नहीं बना पाता, मगर क्रिकेट में बारहवाँ खिलाड़ी भी हर किसी की नज़र में आ जाता है।

अब सवाल यह है कि यह कमाल क्रिकेट का है या फिर उन लोगों का, जो अपने अपने लाभ के लिए क्रिकेट को इतना महत्व दे रहे हैं। क्रिकेट दिन भर का खेल है जबकि फुटबाल का फैसला सिर्फ 90 मिनट में हो जाता है। फुटबाल में आप ने एक पल के लिए आँख फेरी तो पता नहीं कौन सा शानदार पल आपने मिस कर दिया, जबकि क्रिकेट में दिन भर फंसे रहना पड़ता है। बल्लेबाज़ी और गेंदबाजी करने वाले खिलाड़ी के अलावा बाक़ी खिलाड़ी उल्लू की तरह मुंह ताकते रहते हैं, उसके बावजूद भारत जैसे देश में क्रिकेट ने अब एक बहुत बड़े त्‍योहार का रूप धरण कर लिया है। यही कारण है कि विश्‍व कप आते ही सरकारी अफसरों ने छुट्टियाँ ले ली हैं, विद्यार्थियों ने बहाने बना कर स्कूल जाना छोड़ दिया है। बड़े-बड़े होटलों ने खिलाड़ियों के नाम पर डिश तैयार कर ली है। कुछ लड़कियां अपने चेहरों पर विश्व कप का लोगो बनवा रही है तो किसी ने लोगो के लिए अपनी पूरी पीठ ही दे दी है। अखबारों ने पृष्ठों की संख्या बढ़ा ही दी है, चैनल वालों ने तो एक अजब सा ड्रामा ही शुरू कर दिया है। टॉस जीतने से लेकर वो अब हर गेंद और हर विकेट को ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर पेश कर रहे हैं। किसी किसी चैनल पर पूर्व खिलाड़ी अपनी राय दे रहें हैं तो कहीं कहीं बाबा रामदेव के हमशक्ल से नौटंकी कराई जा रही है।

क्रिकेट कोई नया खेल नहीं है। इस की शुरुआत 1876 में हुई थी। फिर 1971 में पहली बार एकदिवसीय अंतराष्‍ट्रीय मुकाबला हुआ। धीरे-धीरे वन डे मैचों में रंगीन कपड़ों का इस्तेमाल हुआ। एक दिन ऐसा आया जब क्रिकेट 20-20 ओवरों की होने लगी और आईपीएल जैसे मुकाबले भी होने लगे जिनमें खेल तो हुआ ही पैसों की बरसात भी हुई और जम कर अय्याशी भी हुई। अय्याशी का यह आलम था कि स्टेडियम में शराब भी परोसी गयी। सच्चाई यह है कि अब क्रिकेट को पूरी तरह से मार्केट से जोड़ दिया गया है। पहले खिलाड़ी शायद देश के लिए खेलते थे, उनमें यह जज़्बा होता था कि देश के लिए खेलूँगा तो खुद का और माँ-बाप का नाम रोशन होगा, मगर अब ऐसा नहीं है खिलाड़ी पैसे के लिए खेल रहे हैं। क्रिकेट में अब दौलत भी मिल रही है और शोहरत भी मिल रही है। खिलाड़ी की बस अब एक ही इच्छा है किसी तरह देश के लिए दो-चार महीने खेल लो। किसी तरह से 6 महीना भी खेलने में सफल रहे तो मैच फीस के तौर पर मोटी रकम तो मिलेगी ही बड़ी-बड़ी कंपनियों के विज्ञापन भी मिल जाएंगे और फिर टीवी पर बकवास कर के कमाई हो ही जाएगी। क्रिकेट को अब पूरी तरह से ग्‍लैमर से जोड़ दिया गया है।

एक तरफ जहां क्रिकेट में भी नाच गाने होने लगे हैं, वहीं अब क्रिकेटर भी नाचने गाने लगा है। क्रिकेट में आने के बाद आदमी कितना बहक सकता है, इसका अंदाज़ा आप इरफान पठान और युसूफ पठान जैसे मौलाना के बेटे को देख कर लगा सकते हैं, जो क्रिकेट में आने से पहले बड़े भोले थे, मगर अब फिल्मी हीरोइनों के साथ नाचते हुये नज़र आ जाते हैं। असल में यह सारी चीज़ें मार्केटिंग एजेंसियां तय करती हैं। कुल मिलाकर देखें तो यह सही है कि जनता का कीमती समय तो बर्बाद हो रहा है, मगर इसके अलावा क्रिकेट से हर किसी का फायदा ही हो रहा है। खिलाड़ी भी कमा रहे हैं, क्रिकेट बोर्ड भी कमा रहा है, कंपनियां भी कमा रही हैं, चैनल भी कमा रहे हैं, जो विज्ञापन दे रहा है वो भी कमा रहा है और जिन खिलाड़ियों ने अपने करियर के दौरान नहीं कमाया वो अब चैनलों पर मेहमान बन कर कमा रहे हैं। हर न्यूज़ चैनल अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से मेहमान बुला रहा है।

क्रिकेट ने अगर बड़ी तरक़्क़ी कर ली है और इससे किसी को लाभ हो रहा है तो अच्छी बात है, मगर क्‍या इस समय देश में क्रिकेट के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है या फिर यह कि इन दिनों क्‍या क्रिकेट ही सबसे बड़ी खबर है। लीबिया से 40 साल बाद गद्दाफ़ी की कुर्सी हिलती हुई नज़र आ रही है, यमन, बहरीन और दूसरे मुस्लिम देशों में इन दिनों आग लगी हुई है। खुद अपने देश भारत में इन दिनों कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनको सुर्खियों में होना चाहिए मगर अफसोस की ऐसा नहीं हो रहा है। समाचार पत्र या फिर चैनल जनता की सोच तय करते हैं। वो जैसा प्रकाशित करेंगे या दिखाएँगे वही जनता देखेगी और समझेगी इसलिए समाचार पत्र और चैनल को भी चाहिए कि वो क्रिकेट की खबरें ज़रूर दें, मगर क्रिकेट से दीवानगी के चक्कर में बड़ी खबरों को न छोड़ें। उन्हें समझना चाहिए कि और भी ग़म हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा.

सोमवार, जनवरी 31, 2011

मोदी तो एक बहाना है असली मक़सद देवबंद पर कब्जा जमाना है


नए कुलपति को हटाने के लिए पर्दे के पीछे से खेल जारी
वसतानवी के खिलाफ खबर नहीं छापने के लिए उर्दू के अखबार ने लाख रुपए मांगे
देवबंद में उर्दू अखबार सहाफ़त की कापियाँ जलाईं गईं
भारत की सब से बड़ी और विश्व की कुछ बड़ी इस्लामी शिक्षण संस्थाओं में शामिल दारुल उलूम देवबंद की खबरें हिन्दी और अंग्रेज़ी मीडिया में आम तौर पर नहीं के बराबर छपती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है की इस संस्था में हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबार जाते ही नहीं । यहाँ की खबरें तभी प्रकाशित होती हैं जब चुनाव के समय मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए कोई नेता इस संस्था का दौरा करता है या फिर जब यहाँ से कोई फतवा जारी होता है। इन दिनों दारूल उलूम एक बार फिर फिर सुर्खियों में है। यह सही है की उर्दू के अखबारों की तरह दारुल उलूम की खबरें अंग्रेज़ी या हिन्दी के अखबारों में ज्यादा नहीं छप रहीं हैं मगर इस बार छप ज़रूर रहीं हैं। इसकी एक बड़ी वजह है इस संस्था के नए वी सी मौलाना ग़ुलाम वसतानवी के मुंह से गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ। मगर हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबारों में एक जैसी ही खबर आ रही है की चूंकि नए वी सी ने गुजरात के मुख्य मंत्री मोदी की तारीफ की इस लिए उनको हटाने की मांग हो रही है। मगर सही खबर कुछ और ही है। दारुल उलूम में इन दिनों बवाल मचा हुआ है, पढ़ाई लिखाई ठप्प है और वहाँ का माहौल तो गरम है ही हर वो वायक्ति चिंता में है जिसे मुसलमानों के इस सबसे बड़े मदरसे में दिलचस्पी है। मौलाना वसतनवी के पीछे आखिर लोग कियून पड़े हुये हैं, आखिर वो कौन लोग हैं जो उनके पीछे लगे हैं, वास्तवि ने पहले परेशान हो कर इस्तीफा दे दिया अब वो कियूं कह रहें है मेरा निर्णय अंतिम नहीं है और मुझे रखने या नहीं रखने का फैसला गोवार्निंग काउंसिल को करना है। यह सब आखिर हो कियूं हो रहा हैं और वो कौन कौन से मौलाना हैं जो इस गंदे खेल में शामिल हैं आइये आपको बताते हैं।
पिछले दिनों जनाब मर्गूबुर्रहमान रहमान की मौत के बाद गुजरात के मौलाना ग़ुलाम मोहम्मद वसतानवी को यहाँ का मोहतमीम यानि कुलपति बनाया गया। उनके कुलपति बनते ही देवबंद में जो बवाल शुरू हुआ है वो धीरे धीरे उग्र रूप लेता जा रहा है और वासतानवी के इस्तीफे की पेशकश के बाद भी कम नहीं हुआ है। वसतानवी का विरोध कई कारणों से हो रहा है। पहला उन पर यह इल्ज़ाम है की वो चूंकि बड़े अमीर मौलाना हैं इस लिए उनहों ने अपने पक्ष में वोट खरीद लिया और इस बड़े ओहदे पर क़ाबिज़ हो गए। उनके विरोध की दूसरी बड़ी वजह है उनका अखबारों में प्रकाशित वो बयान जिसमें उनहों ने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की। उनके विरोध की तीसरी और सबसे बड़ी वजह यह है की उनकी एक ऐसी तस्वीर सामने आई है जिसमें गुजरात में एक प्रोग्राम के दौरान वो किसी को एक मूर्ति भेंट कर रहें हैं। सामान्य तौर पर आम मुसलमानों को मौलाना वसतनवी के विरोध की यही तीन कारण समझ में आ रहे हें।
अब बात करते हैं पहले कारण की। वसतानवी पर आरोप है की उनहों ने पैसे के बल पर यह पद हासिल किया है। जो लोग ऐसा आरोप लगा रहें हैं उन्हें यह समझना चाहिए की यह संभव नहीं है। मजलिसे शुरा यानि गवार्निंग काउंसिल में देश के बड़े बड़े मौलाना शामिल हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती की वो पैसा लेकर वोट करेंगे। और अगर ऐसा है भी तो फिर ऐसे लोगों को गवार्निंग काउंसिल में कियूं रखा गया है। विरोध की दूसरी वजह हजारों मुसलमानों के हत्यारे नरेनरा मोदी की तारीफ है। जहां तक नरेंद्र मोदी का सवाल है सिर्फ मुसलमान ही नहीं दूसरे धर्म के लोग भी यह समझते हैं की गुजरात दंगे में मोदी का भी रोल रहा है। कोई भी सच्चा मुसलमान जिसे अपनी क़ौम से और मानवता से मोहब्बत होगी वो मोदी भला कैसे माफ कर देगा। हर किसी को पता है की गुजरात दंगे में पूरी कमान मोदी के हाथ में थी यह सब उन्हें पता था की राज्य में मुसलमानों को कत्ल किया जा रहा है। महिलाओं की इज्ज़त लूटी जा रही है और बच्चों को अनाथ किया जा रहा है। इस लिए यह सब जानते हुये कोई भी अच्छा आदमी मोदी की तारीफ नहीं कर सकता। जहां तक राज्य में मोदी के कामों का सवाल है तो इस से किसी को इंकार नहीं हो सकता की विकास के जो काम मोदी ने किए हैं वो कोई दूसरा मुख्यमंत्री नहीं कर सका।
रहा सवाल किसी को मूर्ति भेंट करने का तो चूंकि मौलाना वसतानवी गुजरात के हैं और वहाँ वो कई प्रकार के बीजनेस्स में शामिल हैं इसलिए किसी प्रोग्राम में उनहों ने किसी को मूर्ति भेंट की होगी। यह इस्लाम के हिसाब से गलत है इस लिए उन्हें इस सिलसिले में माफी मांग लेनी चाहिए। देवबंद के पूराने छात्र और देवबंद को अच्छी तरह से समझने वाले बताते हैं की वसतानवी के विरोध की असली वजह यह तीन बिन्दु नहीं हैं। सच्चाई यह है की चूंकि दारुल उलूम भारत का सब से बड़ा इस्लामी इदारा है। यहाँ से जारी बयान का असर न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुसलमानों पर भी होता है इस लिए कुछ खास लोग ऐसे हैं जो हमेशा इस बड़ी संस्था पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहते हैं। अब चूंकि वसतानवी का इस पर कब्जा हो गया है इस लिए उन के खिलाफ तरह तरह के बयान जारी किए जा रहें। संस्था में पढ़ाई लिखाई के माहौल को ठप्प अकर्के वसतानवी को देवबंद से भागने के लिए मजबूर किया गया। फिलहाल वसतनवी ने इस्तीफे की पेशकश तो कर दी है मगर उन्हें पूरे भारत से और खास तौर पर गुजरात से जो समर्थन मिल रहा है उसके बाद उनहों ने अपना फैसला बदल लिया है। देवबंद के साथ साथ पूरे देश के मुसलमान जिन्हें इस संथा से लगाव है आज दो गरोहों में बाँट गए हैं। एक वो हैं जो वसतानवी के साथ है और एक वो हैं जो उनका विरोध कर रहें हैं। अलबत्ता कुछ विरोध करने वाले ऐसे हैं जो यह नहीं कह रहे की उनको पद छोड़ देना चाहिए मगर उनका यह कहना सही है की मोदी की तारीफ और मूर्ति भेंट करने वाली बात उचित नहीं है इस के लिए उन्हें मुसलमानों से माफी मांगनी चाहिए। बाक़ी जो दूसरे विरोध करने वाले हैं उनके साथ एक बड़ी समस्या यह है की वो वसतानवी का विरोध तो कर रहें हैं मगर खुल कर सामने नहीं आ रहें हैं। विरोध करने वाले तो इस हद तक गिर गए हैं की उनहों ने उर्दू के एक अखबार को वसतनवी का विरोध करने के लिए पूरा ठेका ही दे दिया है। पिछले कई दिनों से इस अखबार में पहले पृष्ठ पर सिर्फ वसतनवी के खिलाफ ही खबरें प्रकाशित हो रही हैं। इस अखबार में देश की दूसरी सभी बड़ी खबरें इन दिनों गायब रहती हैं इसमें सिर्फ यही छप रहा है की वसतनवी ने यह गलत किया और वो गलत किया। कभी उन्हें आर एस एस का एजेंट कहा जा रहा है तो कभी उनके खिलाफ फतवा जारी करके यह कहा जा रहा है की मूर्ति भेंट करने के बाद अब वो मुसलमान ही नहीं रहे। खबर यह है की उर्दू के दो अखबारों ने एक बड़े मौलाना के दफ्तर में एक सौदेबाज़ी की की अगर वसतानवी इस दोनों अखबार को एक एक लाख रूप्य दे दें तो हम उन के खिलाफ खबर नहीं छपेंगे। मगर वसतानवी ने ऐसा नहीं किया और यही वजह है की उनके वीरोध में खबर और लेख के छपने का सिलसिला जारी है। यानि अगर इन दो अखबारों को लाख लाख रूपये मिल जाते तो मोदी की तारीफ भी गलत नहीं होती और एक मौलाना के जरिया किसी को मूर्ति भेंट करना भी इस्लाम के वीरुध नहीं होता। ज़रा ग़ौर कीजिये इस बात पर। कितना घिनौना खेल खेला जा रहा है इस संस्था के नाम पर । कमाल की बात तो यह है की वासतानवी के फिलहाल गुजरात चले जाने के बाद भी घिनौना खेल जारी है। उर्दू अखबार सहाफ़त ने वसतनवी के खिलाफ लिखने में सारी हदें पार कर दी हैं। यही कारण है की देवबंद में इस अखबार की कापियाँ भी जलायी गईं। मुसलमानों से अपील भी की जा रही है की इस अखबार को पढ्न बंद करें कियुंकी यह मूसलामों की एक बड़ी संस्था को बर्बाद करने पर तुला हुआ है।
इस सारे मामले में सबसे बड़े अफसोस की बात तो यह है की वासतानवी के खिलाफ यह सारा खेल पर्दे के पीछे से एक ऐसे मौलाना खेल रहे हैं जिन्हें भारतिए मुसलमान बड़ी इज्ज़त की निगाह से देखता है। सच्चाई यह है की दुनिया के दूसरे धर्मों के मानने वालों की तरह मुसलमानों में भी कुर्सी की लड़ाई है। एक ओर जहां राजनेता मुसलमानो को मात्र एक वोट बैंक समझते हैं वहीं मौलाना हाजरात भी मुसलमानों के जज़्बात से खेलते हैं। जिस तरह बाल ठाकरे , नरेंद्र मोदी, विनय कठियार जैसे लोग अपने लाभ के लिए किसी बी हद तक जा सकते हैं उसी तरह मुसलमानों में भी ऐसे बहुत से लोग है जो बड़ी गंदी सियासत में लिप्त है। अफसोस की बात तो यह है की ऐसी हरकत वो लोग कर रहे हैं जो बड़े बड़े मौलाना कहलाते है। हजारों मुसलमान ऐसे हैं जो इन्हें इज्ज़त की नज़र से देखते हैं और आँख बंद करके इन पर भरोसा करते हैं। इन मौलाना लोगों में से सब ने गैरसरकारी संगठनों के नाम पर कई कई संस्था बनाकर अपनी अपनी दूकानें खोल ली है और आम मुसलमानों को उल्लू बनाकर अपनी अपनी दुकान चला रहें है। इन दिनों दारुल उलूम देवबंद में जो खेल जारी है उसकी असलियत का पता हर बड़े मौलाना को है। सबको पता है की वसतनवी का सही मायेने में विरोध कौन लोग कर रहे हैं और उनके विरोध की वजह किया है। सब को यह भी पता है की वसतनवी के खिलाफ मोर्चा किसने और किस मक़सद से खोला हुआ है। मगर कोई कुछ नहीं बोल रहा हैं। कारण यह है की हर किसी को अपनी अपनी दुकान चालानी है। संस्था में हँगामा हुआ, विद्यार्थी ज़ख्मी हुये, पढ़ाई डिस्टर्ब हो रही है मगर इसकी चिंता किसी को नहीं हैं।
दारुल उलूम में ठीक ऐसी ही स्थिति 30-32 साल पहले भी पैदा हुई हुई थी। तब मौलाना कारी तैयब साहब दारुल उलूम के मोहतमीम थे। इन्हीं लोगों ने जो आज पर्दे के पीछे से वसतनवी के खिलाफ मोर्चा खोले हुये हैं ने उस समय भी खूब हंगाम किया था। तैयब साहब ने तब हार मान कर सब कुछ उन लोगों के हवाले कर दिया था जो इसे अपनाना चाहते थे। उस समय भी हंगामे में कई विद्यार्थी ज़ख्मी भी हुये थे और एक मौलाना साहब जो आज भी बड़े मौलाना हैं ने उस समय दोनों हाथों से विद्यार्थियों पर गोली चलाई थी। हद तो तब हो गयी जब इसी मौलाना ने एक विद्यार्थी के मुंह में उस समय पेशाब करवा दिया जब उसने प्यास से पानी की मांग की । कुल मिलाकर विद्यार्थियों का इस्तेमाल कर के आज एक बार फिर दारुल उलूम पर क़ब्ज़े की तैयारी हो रही है । इस संस्था पर हमेशा एक खास ग्रूप का कब्जा रहा है और अब जबकि गुजरात का एक मौलाना इस संस्था पर क़ाबिज़ हो गया है तो यह बात इस ग्रूप को पच नहीं रही है और इस मौलाना यानि वसतनवी को हटाने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। एक सीधी सी बात यह है की यदि गवार्निंग काउंसिल को लगता है की मौलाना वासतानवी इस ओहदे के लायक नहीं हैं तो हंगामा करने के बजाए उन्हें सीधे से हटा दिया जाये। सब से खास प्रश्न तो यह है की दारुल उलूम देवबंद किसका है? अगर यह किसी एक खानदान का है तो यह पूरी तरह से उसी को सौंप दिया जाये और अगर यह संथा पूरे मुसलमानों की है और यहाँ कोई समस्या पैदा हुई है तो इसके लिए हर बड़े मौलाना को सामने आना चाहिए। अगर सब लोगों को यह लगता है की वसतानवी जैसी सोच का आदमी इस संस्था के लिए उचित नहीं होगा तो उसे हटा दिया जाये मगर यह फैसला तो गवार्निंग काउंसिल को करना है मगर बड़े बड़े मौलाना पर्दे के पीछे से जो खेल खेल रहें है किया वो शर्मनाक नहीं है। वैसे तो वासतानवी की किस्मत का फैसला 23 फरवरी को गवार्निंग काउंसिल की मीटिंग के बाद होगा इस दौरान देवबंद पर क़ब्ज़े की इस राजनीति में कौन कौन से गेम होते हैं देखते रहिए।

सोमवार, जनवरी 10, 2011

दिल्ली से एक और उर्दू अखबार


भारत में उर्दू के समाचारपत्रों की हालत कभी भी अच्छी नहीं रही। इस के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों खास तौर पर दिल्ली से उर्दू अखबारों के निकलने का सिलसिला हर दौर में जारी रहा। अखबार निकलते रहे और साल दो साल या फिर चार साल के बाद बंद होते रहे। हाल ही में दिल्ली से उर्दू का एक और अखबार जदीद मेल के नाम से निकला है। वैसे तो शुक्रवार को यह अखबार पहली बार मार्केट में आया मगर उस पर अंक नंबर 61 लिखा हुआ है। इसके चीफ एडिटर जाने माने पत्रकार जफर आग़ा हैं जबकि एडिटर हाजी अब्दुल मालिक है जो इस अखबार के मालिक भी हैं। अखबार के प्रिंटर और पब्लिशर आली हैदर रिजवी हैं। रिजवी पहले सहाफ़त अखबार में थे। किसी विवाद के बाद रिजवी सहाफ़त से अलग हो गए और उनहों ने एक दूसरा अखबार उर्दू नेट निकाला। बाद में कुछ ही दिनों चलने के बाद उर्दू नेट भी बंद हो गया। उर्दू का यह नया अखबार कितने दिन चलेगा यह तो एक अलग सवाल है मगर एक मुख्य प्रश्न यह है की जब राष्ट्रीय सहारा के अलावा दिल्ली से निकालने वाले उर्दू के सभी अखबार आर्थिक तंगी की वजह से रोते रहते हैं, किसी ने खर्च में कमी लाने की नियत से दिल्ली से बाहर अखबार भेजना बंद कर दिया है तो कोई अखबार बेचने के लिए खरीदार तलाश रहा है। ऐसे में एक नए उर्दू अखबार की शुरूआत बड़े आश्चर्य की बात है।
उर्दू अखबार के साथ एक बड़ा मसला यह है की उन्हें विज्ञापन बहुत कम मिलते हैं। कम सर्कुलेशन की वजह से प्राइवेट विज्ञापन तो मुश्किल से मिलता ही है अब डी ए वी पी के विज्ञापन में कमी के कारण भी उर्दू अखबार की हालत खराब हो गयी है। पिछले दिनों जब उर्दू वालों को डी ए वी पी के विज्ञापन बहुत कम मिलने लगे तो उर्दू अखबार के मालिक और संपादकों ने इस समस्या को लेकर कई नेताओं समेत प्रधान मंत्री से भी मुलाकात की। उन्हें उनकी समस्याओं के हल का आश्वासन भी दिया गया मगर अब तक यह समस्या हल नहीं हुई है। लगभग एक साल बीत चुके है तब से लेकर अब तक उर्दू वालों का नेताओं और अफसरों से मिलने का सिलसिला जारी है। इस सिलसिले में एक बात यह देखने में आ रही है की अपनी आदत के अनुसार उर्दू का हर अखबार एक दूसरे की काट करने में लगा है। हर संपादक या मालिक की यही कोशिश है की नेता से उसकी पहचान ज़्यादा बने और अगर सरकार उर्दू अखबार के लिए कुछ खास ऐलान करे तो उसका लाभ उसे हो। फिलहाल दिल्ली से 47 उर्दू के ऐसे अखबार प्रकाशित हो रहें हैं जिनको डी ए वी पी से विज्ञापन मिलता है। इन 47 में से अधिकतर ऐसे है जो सिर्फ उसी दिन प्रक्षित होते हैं जिस दिन उनको विज्ञापन मिलता है उसके अलावा यह अखबार कहाँ से प्रकाशित होते हैं और कहाँ जाते है यह किसी को पता नहीं है। दिल्ली में फिलहाल मार्केट में उर्दू के जो अखबार नज़र आते है वो हैं राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान एक्सप्रेस, सहाफ़त और हमारा समाज। इन के अलावा जो अखबार निकलते वो सिर्फ सरकारी दफ्तरों में जाते हैं। इनमें कॉर्पोरेट का अखबार होने की वजह से सिर्फ सहारा ही ऐसा है जिसकी आर्थिक हालत अच्छी है बाक़ी के अखबार जैसे तैसे कर के चल रहें हैं। जिस अखबार के मालिक तेज़ और चालाक हैं वो तो कहीं न कहीं से अखबार चलाने के लिए पैसा निकाल ही लेते हैं जिनको यह फन नहीं आता वो अपनी हिम्मत से अखबार निकाल तो रहें है मगर कब तक निकलते रहेंगे यह कहना मुश्किल है। उर्दू अखबारों की आर्थिक तंगी के बावजूद एक नए अखबार ने दिल्ली में दस्तक दी ह। अखबार के मालिक ने ऐसी हिम्मत कैसे कर ली और यह अखबार कितने दिनों तक चलेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा।